जानिए क्या है? सूर्यवंषियों और चन्द्रवंषियों के इतिहास में शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों के साथ




       भाई बन्धु/सूर्यवंषी और चन्द्रवंशी दो प्राचीन मानव वंश हैं। सूर्यवंश में  इक्ष्वाकु से राम तथा चन्द्रवंश में बुध (वीनस) से श्रीकृष्ण तक और युधिष्ठिर द्वारा चलाये संवत् जिसको आज कलयुगी संवत कहते हैं, 5018 (पांच हजार अठारह) वर्ष हो गये हैं। इन वंशों का प्राचीन इतिहास गौरवशाली रहा है। पश्चिमी देशों के इतिहास, संस्कृति, कला और धर्म से सम्बन्धित साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों का इतिहास भी सूर्यवंशी और चन्द्रवंशियों से जुड़ा है। सूर्य वंशी शाकद्वीप में और चन्द्रवंशी जम्बूद्वीप में निवास करते थे। इन दोनों वंशों का एक दूसरे के द्वीपों में आना जाना था। इतिहासकार पंडित ईष्वरी प्रसाद शर्मा के अनुसंधान में लिखते हैं कि शाकद्वीपी से शाकद्वीपी बहुत पहले से भारत में आकर बसे थे। भानु के पुत्र इक्ष्वाकु शाकद्वीपीय क्षत्रिय थे। वो अपना स्थान शाकद्वीपीय छोड़कर अयोध्या में आ बसे। इसके सम्बन्ध में प्रमाण आगे दिये गये  हैं। 
       चन्द्रवंशी जम्बूद्वीप से सूर्यवंशी शाकद्वीप से जम्बूद्वीप में आते जाते रहते थे। शाकद्वीप में सूर्यवंशी भानू सूर्य की पूजा करते थे। सूर्य के नाम से कई नगर इन क्षेत्रों में इन्होंने बसाये थे। चन्द्रवंशी श्रीकृष्ण के अवतरण से पूर्व इन द्वीपों में आते-जाते थे। बुध और त्रिविक्रम की पूजा यहां होती थी। लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व से श्रीकृष्ण की पूजा शाकद्वीप और अन्य पष्चिमी देशों में होती थी। कर्नल टॉड ने लिखा है कि जम्बूद्वीप से मूलतान के चन्द्रवंशी यादव जो इन क्षेत्रों में निवास करते थे उन्होंने श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया था। श्रीकृष्ण के मंदिर में सूर्य, चन्द्र, कृष्ण, राम, सीता, लक्ष्मण, हरिहर, त्रिविक्रम , चामुण्डा आदि की मूर्तियां स्थापित होती थी। शाकद्वीपी मग ब्राहा्रण शाकद्वीप में निवास करते थे यहां शाकद्वीप में चारों वर्ण के लोग रहते थे। इसके सम्बन्ध में आगे बताया गया है। शाकद्वीप के निवासी सभी शाकद्वीपी कहलाते थे। चाहे वह किसी जाति धर्म वर्ण के हो। जिस प्रकार आज इंडिया में रहने वाले लोग चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ण का हो बाहर के देशों में इंडियन ही कहलाते हैं। उसी तरह उस समय जम्बूद्वीप में आकर बसे शाकद्वीपी कहलाते थे। 
       सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी दो मानव वर्षों के प्राचीन इतिहास के सांस्कृतिक धार्मिक और सामाजिक साक्षों के संकलन से यह ज्ञात होता है। सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी दोनों देशों वंशों का दोनों द्वीपों के लोगों में सम्मान था। सूर्य और चन्द्र दोनों की पूजा एक साथ होती थी। हमारी मूर्तियां मंदिरों में दोनों की साथ-साथ पूजा होती थी। 
       आईये सबसे पहले चन्दवंश की उत्पति, सूर्य का आविर्भाव सूर्य परिवार शाकद्वीप जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करे। 
       चन्द्रवंष की उत्पति -चन्द्रवंश के आदि प्रवर्तक बुध (वीनस) की राज्याप्राप्ति के विषय में श्रीमद्धागवत महापुराण के नवम स्कंध में लिखा है कि गत कल्प के अन्त में नवीन सृष्टि को उत्पादन करने की अभिलाषा से आदि नारायण श्रीहरि ने ''एकोऽहं बहुस्यामि'' अर्थात मैं एक से अनेक रूपों में परिणित हो जाऊं। ऐसा विचार करके अपनी नाभि में से सृष्टिकर्ता सुरज्येष्ठ ब्रहा्रदेव को उत्पन्न किया। उन्होंने अपने मन से मरीचि को पैदा किया। मरीचि ऋ षि तपोबल से कश्यपजी को उत्पन्न किया। परन्तु इस प्रकार की मानसिक सृष्टि से संसार की वृद्धि न देख कर कश्यपजी ने ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति को अदिती नाम की कन्या के साथ विवाह किया। इसी आदि दम्पति से विवश्वान नामक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। उन्होंने संज्ञा नाम की स्त्री से श्राद्धदेव (मनु) को पैदा किया। 

       श्राद्धदेव ने पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा से अपने गुरू ब्रह्मपुत्र वशिष्ट महर्षि से यज्ञ करवाया परन्तु होता की असावधानी से उस यज्ञ कुण्ड में से पुत्र के स्थान में इला नाम की कन्या का आविर्भाव हुआ। इस व्यतिक्रम से अपने यजमान राजा श्राद्धदेव को अत्यन्त व्यथितचित देख कर महर्षि वषिष्ट ने तपोबल से इला को पुरूष बना कर उस का सुद्यम्न नाम रक्खा। सुद्यम्न एक दिन मृगयार्थ भूतभावन महादेव जी के केलि वन में चला गया। वहीं पर उस वन की दैवी प्रभाव से वह अपने अनुचरों सहित आत्म स्मृति हीन होकर भावीवश फिर सुन्दर स्त्री के रूप में परिणित हो गया। वह सुन्दर स्त्री (इला) घुमती हुई एक दिन उस केलि वन की सीमा से बाहर निकल गई। दैवयोग से भ्रमणार्थ आये हुये कुमुदिनीनायक भगवान चन्द्रदेव (चन्द्रमा) के पुत्र बुध से वहीं पर उस का प्रेम सम्बन्ध हो गया। बुध के वीर्य से इला (सुद्यम्न) में से पुरूरवा नामक अत्यन्त सुन्दर परम प्रतापशाली चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ। 
       बुध से श्रीकृष्ण पर्यन्त भूतकालीन चन्द्रवंशी राजाओं की सूची वंश प्रवर्तक चन्द्रदेव के पुत्र बुध से चन्द्रवंशी कहलाई। (पंडित हरिदत जैसलमेर का इतिहास पृष्ठ 56)
       पृथ्वी पुत्री इला - शा.म.भोजक ब्राहा्रण इतिहास शंकरलाल कुबेरा पृष्ठ संख्या 102 में वैद्य में पंडित नथमल शर्मा जोधपुर भविष्य पुराण अध्याय 36 संदर्भ में लिखते हैं पृथ्वी के उत्पति के सम्बन्ध में अन्य पुराणों में लिखा है कि ब्रह्मा का पुत्र मरिची हुआ और मरिची के कश्यप और कश्यप के हिरण्य कश्यप और हिरण्य के प्रहलाद और प्रहलाद से विरोचन और विरोचन की बहन का नाम प्रहलादी हुआ। बृहस्पति की बहिन का नाम ब्रह्मवादिनी प्रसिद्ध हुआ व अष्टम वसु की पुत्री है। विश्कर्मा नाम का पुत्र हुआ उनके सुरेणु नाम की पुत्री हुई। जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं। उसकी पुत्री राज्ञी (संज्ञा) हुई। इस संज्ञा को द्यौ त्वष्टा प्रभा आदि के नामों से जानते हैं। संज्ञा की छाया से निक्षुभा पृथ्वी हुई। वहीं निक्षुभा भगवान मार्तण्ड की पत्नी हुई। इस प्रकार संज्ञा और निक्षुभा (संज्ञा की छाया) विश्वकर्मा की पुत्री है। 
       हमारे आराध्य पंचदेव पुस्तक में मैने पुराणों के संदर्भ से सूर्यनारायण की उत्पति और उनकी भार्या संज्ञा और उसकी छाया निक्षुभा पृथ्वी के संदर्भ में लिखा है संज्ञा को रूपा अथवा द्यौ स्वर्ग भी कहा जाता है। निक्षुभा छाया को पृथ्वी कहा जाता है। पौष शुक्ला सप्तमी को सूर्य नारायण का मिलन होता है। और माघ शुक्ला सप्तमी को निक्षुभा-पृथ्वी से सूर्य नारायण का संगम होता है। जिससे राज्ञी संज्ञा या द्यौ से जल उत्पन होता है तथा निक्षुभा पृथ्वी से तीनों लोको के कल्याण से शस्य सामग्री उत्पन होती है। शस्य को अन्न कहते हैं। अन्न से ब्राहा्रण हवन करते हैं। जगत को अन्न प्रदाता इला की माता पृथ्वी को अन्नपूर्णा कहते हैं। (ब्रहा्रापर्व अध्याय 79)
- नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर।

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