भाई बन्धु। ईस्वी सन् 1 ए डी ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह (जीसर क्राइस्ट) के जन्म वर्ष से चला हुआ माना जाता है। ईसा मसीह के नाम से इसको ईस्वी सन् कहते हैं। ईस्वी पांचवी शताब्दी तक इसका प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था। हमारे देश के स्वर्गीय हीराचन्द औझाजी ने अपनी प्राचीन लिपी माला में लिखा है कि सन् 527 के आस पास रोम नगर इटली में रहने वाले डायनोनियम एकितगऊस नामक विद्वान पादरी ने मजहवी सन चलाने हेतु हिसाब लगाकर 194 आर्लिपिऊड के चौथे वर्ष अर्थात रोम नगर की स्थापना से 795 वें वर्ष में ईसा मसीह का जन्म होना निष्चित किया। और वहां से लगाकर अपने समय तक के वर्षों तक की संख्या नियत कर ईसाइयों में इस सन् का प्रचार किया और ईस्वी सन् को प्रारम्भ किया। इस सन् का प्रारम्भ शौर (सोलर) वर्ष है। इसका प्रारम्भ 1 जनवरी से होता है। 12 महीनों में विभक्त हैं। 365 दिन 12 महीनों में विभक्त हैं। रात्रि के 12 बजे के बाद तिथि बदलती हैं। 4 वर्ष में 1 दिन फरवरी माह में जोड़ दिया जाता है। हिन्दुस्तान में यह अंग्रेजों के समय आया। पहले यहां चलने वाला संवत कलियुगी सवंत (महाभारत काल से) युधिष्ठिर संवत भी कहते हैं। इस संवत का विशेष उपयोग ज्योतिषय के ग्रंथों पंचागों में होता तथा भारत का प्राचीन संवत है। इसका प्रारंभ 3102 तारीख 18 फरवरी के प्रात: काल में माना जाता है। विक्रम संवत 3044 और शक संवत 3179 में कलियुगी से प्रारंभ यह संवत पांच हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ किया गया विश्व में जितने भी संवत कलियुगी संवत के बाद में चले उन सब की काल गणना कलियुुगी संवत से ही की जाती थी। उस समय सभी संवत 100 वर्षों के अन्तर से परिवर्तित होता है हिजरी संवत के बाद कई मजहबी तथा राजवंषों के संवत प्रारम्भ हुवे है। लेकिन उन सब की कालगणना कलियुगी संवत से ही की जाती है। बाद में प्रारम्भ होने से इन संवतों की काल गणनाओं में अन्तर आ गया। इसी कारण हिजरी संवत के बाद प्रारंभ हुवे कई राजवंषों के संवतों में अन्तर आता है। ज्येातिष की काल गणना के आधार पर यह दिन आता है यह सृष्टि क उदय का दिन है।
कर्नल टाड के अनुसार विक्रम संवत का प्रारंभ चन्द्रवंशी तुवर राजा विक्रमादित्य ने 58 विक्रम संवत पूर्व प्रारम्भ किया था। ऐसा माना जाता कि अलग-अलग समय में विक्रमादित्य नाम के राजाओं ने विक्रम संवत चलाया है। इसी कारण अभिलेखों में विक्रमादित्य का सम्बोधन अलग-अलग नामों व उपाधियों में मिलता है।
शिलालेखों के प्रारंभ में निर्माण कर्ता द्वारा अपने इष्ट देवता को नमन किया जाता है। जिसमें ú नमों भगवते वासुदेवाय नम:, श्री गणेशाय नम: के साथ एक श्लोक लिखा मिलता है। अभि प्रेतार्थ सिद्धर्थम् पूजयेत सूरेरपि सर्वविध्र्न विछेदते स्मै श्री गणाधिपतेय नम:। स्वस्ति श्री नृप विक्रमादित्य राज्यातात संवत। कही स्वस्ति श्री नृप विक्रमार्क समयातीत संवत। कही श्री मन्न महाराजधिराज श्री विक्रमादित्य राज्यात संवत। कही स्वस्ति श्री नृप विक्रमादित्य राज्यो समयातीत संवत। कही मात्र संवत, कही आषाढी संवत, कही नृप विक्रमार्क राज्यात संवत, कहीं स्वस्ति श्री श्री संवत और उनके साथ महाराज श्री शालीवाहन राज्यतात शाके, कहीं केवल शाके, कही शाके आषढी वर्षे, कहीं चेत्रादी वर्षे, कही श्री शालीवाहन शाके तथा उनके साथ में संवत भाटिके लिखा होता है। कहीं ú नम: परमात्मने श्री पुराण संवत युधिष्ठर संवत या कलियुगी संवत् भी लिखा होता है। एक स्थान पर नाग संवत भी देखने में आया। जैसलमेर के जैन मंदिर में इलाही संवत अकबर द्वारा प्रारंमभ किया गया था, का भी उल्लेख मिलता है।
सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष
आसोज या अश्विनी मास में मनाये जाने वाले उत्सवों का प्रारम्भ नौरात्री के उत्सव से होता है। जो युद्ध के देवता के लिये पवित्र होता है। उनके संवत को नियमन चन्द्र की गति के द्वारा होता है। यद्यपि जब कभी सूर्य किसी नवीन राशि में प्रवेश करता है। उन संक्राति के दिनों भी लोग उपवास करते हैं। सौर वर्ष (365) प्राचीन हिन्दुओं का सौर वर्ष प्राचीन काल में सर्दी की पोष बदी महीने में प्रारम्भ से होता है तथा उसे विशिष्ट रूप से देवताओं का सेवरा कहा जाता है। इसी समय शिव रात्रि भी पड़ता है। जो निशा माता का समानार्थी है। इस दिन से स्केडेनियन, असाई जाति का तथा अन्य उतर में रहने वाले ऐशिया वासियों का नवीन वर्ष प्रारम्भ होता है। (टॉड पूष्ठ 56)
चन्द्र वर्ष (360 दिनों का) प्राचीन आषाढ़ के महीन में पडऩे वाले ग्रीष्म संक्राति (सोलास्टिक) की देवताओं की रात्रि कहते हैं। क्योंकि विष्णु (सूर्य रूप) वर्षा ऋतु के चार महिनों में अपने सर्प सैया पर विश्राम करते हैं।
चन्द्रवर्ष सौर वर्ष से अधिक प्राचीन है। तथा इसका प्रारम्भ आसोज या अश्विनी होता है। हिन्दुओं के चन्द्रिक वर्ष के प्रथम खण्ड में पूर्णमासी के दिन उस वर्ष का प्रारम्भ हुआ था। तभी इसका नाम चन्द्र वर्ष रखा गया।
आधुनिक सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष आधुनिक प्रमाणों के अनुसार उत्सवों का प्रारम्भ चेत से होता है। आधुनिक सौर वर्ष का प्रारम्भ चेत से होता है। आसोज में चांद के वर्ष का प्रारम्भ होता है। चेत के नव दिनों (नव रात्रि) को ईश्वर तथा उसकी पत्नी ईसानी को समर्पित है।
चैत्री संवंत
प्रथम चैत सुदी (शुक्ल पक्ष) की एकम से नया वर्ष विक्रम संवत प्रारम्भ होता है। इस दिन उदयपुर में पुष्पोत्सव होता है। बंसत ऋतु का प्रारम्भ भी इसी समय होता है। हिन्दू महीने में दो पखवाड़े होते हैं। प्रथम एक से पन्द्रह (15) तक को बदी या कृष्ण पक्ष कृष्ण का रंग श्याम है इसलिए मारवाड़ी में इसे अंधारा पख या कृष्ण पख कहते हैं। इसलिये अमावस्या इसकी विभाजन रेखा होती है। इसके बाद के अंश को सुदी (शुक्ल) पक्ष जिसे मारवाड़ में चादणा पख कहते हैं। यह पूर्णिमा से अमावस्या तक समाप्त होता है। इस प्रकार यह लोग 16-17 नहीं बोलकर बदी या सुदी एकम, दूज बोलते हैं। अमावस्या को हिन्दू और यहुदी दोनों पवित्र दिन मानते हैं। इस दिन कारीगर श्रमिक अवकाश रखते हैं तथा स्नान दान पुण्य करते हैं।
चन्द्र पुरूष देवता-हिन्दू और तातार इसे चन्द्र को देवता मानते हैं तथा इसकी पूजा करते हैं। हिन्दुओं में राजपूतों तथा स्कोडेनियन और सेकेसन देशवासियों के वारों के नाम मिलते जुलते हैं। देखिये नीचे की तालिका में इनके उदाहरण है-
राजपूत - स्केडेनेवियन
सूर्यवार - सन+डे सनडे सन को अग्रेंजी में सूर्य कहते हैं
सोम या इन्दुवार - मन+डे मनडे मनडे को चन्द्र (सोम) कहते हैं।
मंगलवार - टुयस+डे टयुस्डे टयुस्डै को मंगल कहते हैं।
बुधवार - वीनस+डे वीनसडे वीनस बुध को कहते हैं।
गुरूवार (बृहस्पतिवार) - थोर्स (थर्स)+डे थोर्सडे थर्स डे को बृहस्पति कहते है।
शुक्रवार - फ्रेव+डे फ्रेवडे फ्रेवडे को शुक्र कहते हैं।
शनिवार या शनिश्चरवर - सेटर+डे सेटरडे सेटरडे को शनि कहते हैं।
मासों में सूर्य के नाम
भगवान सूर्य एक होते हुए भी कालभेद से नाना रूप धारण करके प्रत्येक मास में तपते रहते हैं। एक ही सूर्य बारह रूपों में प्रकट होते हैं। मार्गशीष में मित्र, पोष में सतानत विष्णु, माघ में वरूण, फाल्गुन में सूर्य, चैत्र में भानु , बैशाख में तापन, ज्येष्ठ में इन्द्र, आषाढ़ में रवि, श्रावण में गभस्ति, भाद्रपद में यम, आश्विनी (आसोज) में हिरण्यरैता और कार्तिक में दिवाकर तपते हैं। इस प्रकार बारह महीनों में भगवान सूर्य बारह नामों से पुकारे जाते हैं। इसका रूप अत्यन्त विषाल, महान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान देदीप्यमान है। जो इस प्रसंग का नित्य पाठ करता है, उसके शरीर में पाप नहीं रहता। उसे रोग, दरिद्रता और अपमान कष्ट भी कभी नही उठाना पड़ता। वह क्रमश: यश, राज्य, सुख तथा अक्षय स्वर्ग प्राप्त करता है।
कल्याण ब्रह्म पुराण में सूर्य के नाम पृष्ठ संख्या 159 में इस प्रकार दिये गये हैं -
चैत्र मास में विष्णु बैशाख में अर्यमा ज्येष्ठ में विवस्वान आषाढ़ में अशुमान श्रावण में पर्जन्य भादों में वरूण अश्विनी में इन्द्र कार्तिक में धाता अगहन (मृगशीर्ष) मिगसर में मित्र पोष में पूषा माघ में मग फाल्गुन में तवष्टा नामक सूर्य तपते हैं।
According to The Ancient Chronology of Thar By ANTHONY GORDON O’BRIEN
ईस्वी सन का प्रारंम्भ 57 विक्रम संवत् पूर्व प्रारम्भ माना जाता है। (57 बीसी) शाका संवत् 78 ईस्वी सन् में प्रारम्भ हुआ है। इस प्रकार 78 शक संवत् और 57 विक्रमी संवत् को जोडऩे पर 78$57=135 योग होता है। इस प्रकार शक संवत् का प्रारंभ विक्रम संवत के 135 वर्ष में प्रारम्भ होना माना जाता है। जैसा की आगे बताया गया है कि मुगल काल से पहले सारे संवतों की शुरूआत कलयुगी संवत् से होती थी और यह 100 वर्ष बाद संवत् बदलते थे। इस कारण से शक संवत् विक्रम संवत् और ईस्वी सन का मेल परस्पर नहीं मिलता था। इस मेल को मिलाने के लिये प्रचलित संवत् में से 100 वर्ष घटाकर उसमें 78 जोड़कर इसका मेल मिलाया जाता था। तब परस्पर तिथियां मिलती थी। जब से मुगल काल में इन तिथियों की काल गणना सही की गयी है तब से यह अन्तर समाप्त हो गया। जैसलमेर के राजाओ के राज्यकाल भी इसी कारण महारावल हरराज (1634 विक्रम संवत) से पूर्व नहीं मिलते हैं। यह 22 वर्ष आगे चले जाते हैं। इसी कारण लोगों ने जैसलमेर की स्थापना को भी 1212 के स्थान पर 1234 लिखा है। जो ऋटिपुर्ण है।
वर्तमान विक्रम संवत् 2073 और कलयुगी 5118 है। जो सही है।
युधिष्ठिर संवत 3044 विक्रम संवत 1 शक संवत 3179 शक संवत 1 और युधिष्ठिर (कलयुगी) 3102 ईस्वी सन् 1 युधिष्ठिर संवतों का प्रारम्भ माना जाता है। जब हम इस कालगणना की जाच करते हैं तो 3044 विक्रम संवत और शक संवत् में 135 वर्ष बाद प्रारम्भ माना जाता है। 3044+135=3179 शक संवत्
युधिष्ठिर / कलयुगी 3044+35 शक का अन्तर=3179 शक संवत आयेगा। 3102 ईस्वी और युधिष्ठिर संवत का अन्तर 3044+78=3122 इस प्रकार और 78 वर्ष के लगभग शक 3179-78 घटाने पर 3101-2 वर्ष आयेगा। कलयुगी संवत् 3044 में यदि हम 3044$58= 3102 ही होता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि विक्रम और ईस्वी सन् 3044$58=3102 ईस्वी और शक संवत् 3044+78=3122 इस प्रकार ईस्वी सन् से और विक्रमी सवत् से शक संवत् उस समय 22 वर्ष आगे चलता था।
यदि हम युधिष्ठिर संवत ओर शक संवत के अन्तर को 135 वर्ष से फलावट करते हैं तो यह समय 3044+135=3179 वर्ष इस प्रकार ईस्वी और शक का अन्तर 78 वर्ष क लगभग आयेगा। यदि हम युधिष्ठिर संवत 3044 विक्रम संवत 3044 $78 जोडग़े तो यह 3122-23 हो जायेगा। इस प्रकार यह अन्तर 3102$22=3124 हो जायेगा। यहा शक संवत् से विक्रम ईस्वी 22 वर्ष आगे चला जायेगा। प्राचीन काल में विक्रम ईस्वी और शक काल गणना में 100 वर्ष के अन्तर से निर्धारित की जाती थी। इसलिये 3124 में 22 वर्ष आगे चला गया है। इस कारण ईस्वी सन में शक और वि. के 78 वर्षों के अन्तर का जोड़कर 100 घटाने पर यह तिथियां सही मिलेगी। बैशाखी में दिये गये शिलालेख का प्रमाण इस प्रकार है यह संवत 101 शाके संवत 947 का है। इस शिलालेख में 947$78 ई शक संवत अन्तर = 1025 होता है। लेकिन 1025 में 100 घटाने पर 925 आयेगा। इसी तरह यदि शक संवत 947 में 22 वर्ष को घटायेगे तो भी 925 संवत् आयेगा। इस प्रकार 925 तिथि, नक्षत्र, वार, घड़ी, करण आदि पंचाग परस्पर मिल जायेगे। ईस्वी सन 3102 युधिष्ठिर संवत मे चालू हुआ। इसके 3102 के 500 पांच सौ वर्ष बाद 3102$500=3602$22=624 ई में हिजरी संवत और भटिक संवत तथा अन्य संवत जैसलमेर के राज्य में प्रारम्भ हुवे हैं। उनमें भी 22 वर्षों का अन्तर है । जो ईस्वी या विक्रम संवत से आगे चलते हैं।
जैसलमेर की स्थापना की तिथि वि.स. 1212 दी गई है। लेकिन इतिहासकारों द्वारा षक और विक्रम के अन्तर को 135 वर्ष से फलावट करने से यह तिथि 1212 के स्थान पर 1234 वि.स. हो जाती है। जो गलत है। जैसलमेर के कतिपय इतिहासकारों द्वारा की गई इस गलती को सही मानकर पर्यटकों के लिये जैसलमेर की स्थापना तिथि को 1212 विक्रम संवत् के स्थान पर 1234 प्रशासन ने सूर्य प्रोल के जैसलमेर के इतिहास पट पर लिख दी है। यह सही नहीं है। यह गलत है। इससे 1234 में 22 वर्ष घटाकर 1212 करना चाहिये। जैसलमेर के समस्त के पारम्पारिक पुरातत्व इतिहास में जैसलमेर की तिथि 1212 वि.स. तदनुसार 1156 ईस्वी प्रमाणित होती है। जो सही है। महारावल लूणकरण और महारावल हरराज के राज्य काल में जेत बन्ध की प्रतिष्ठा के समय ज्योतिषियों ने 22 वर्षो के अन्तर को समयोजित कर दिया। इसके बाद यह तिथियां सही हो जाती है । मुगल काल में काल गणना में समानता लाई गई है।
- नन्दकिशोर शर्मा (मरु सांस्कृतिक केन्द्र), जैसलमेर। मो.: 9413865665
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