आज महीने की अंतिम तारीख है। चार घंटी के बाद छुट्टी हो जानी थी -बच्चों की।
चौथी पीरियड मेरी खाली थी। अचानक एक शिक्षक के बाहर चले जाने के कारण मुझे कक्षा में जाना पड़ा। छात्रों ने शोर मचाना शुरू किया-
" सर! कहानी सुनाइए। आपने कभी भी, कोई कहानी नहीं सुनाई । "
मैंने महसूस किया आज सचमुच कोई पढ़ने के मूड में नहीं है
" कौन सी कहानी कैसी कहानी? "मैंने पूछा ।
"भूत की ।"एक विद्यार्थी ने कहा।
"भूत की...? वैसे मैं स्वयं नहीं जानता ' कहानी क्या है?' मैं सिर्फ बोलता जाऊंगा । आगे का वाक्य या घटना के बारे में मुझे कुछ भी नहीं पता । कुछ भी नहीं है मेरे जेहन में। बस बोलता जाऊंगा....बन जाएगी कोई कहानी...तो ठीक ..वरना नहीं कहानी बनी...तो मुझे दोष मत देना।"
"उस दिन बिहार बंद था बिहार और झारखंड अलग अलग नहीं थे। यह 2000 ईस्वी की बात थी। पर मेरा स्कूल खुला था । मैं पहुंच तो गया था- स्कूल ! परंतु छुट्टी होने पर 2:00 बजे लौटना था -मुझे अपने आवास पर। आवास.....यानी...'रामगढ़ कैंट' से 'चुट्टूपालू'। स्कूल से 10 किलोमीटर दूर ...!
...कैसे लौट पाऊंगा...?कोई गाड़ी नहीं...!इक्की दुक्की, प्राइवेट गाड़ियां जब कभी गुजर जातीं। रुकने के लिए मैं सबको हाथ उठाया परंतु किसी ने गाड़ी नहीं रोकी। क्षोभ और आक्रोश से भरा मैं पैदल ही चल पड़ा। हिसाब लगाया ...4 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलने पर ढाई घंटे में पहुंच जाऊंगा । मैं पैदल चलता रहा और अतीत की खट्टी मीठी यादों में डूबता रहा। चुट्टूपालू की घाटी आरंभ हो गई थी।...चढ़ाई.....चढ़ाई ...और चढ़ाई...दायीं ओर की पहाड़ी ऊंची और ऊंची होती गई। बाई तरफ की घाटी गहरी और गहरी ....।
पहाड़ों की लंबी श्रृंखला और बादलों का अचानक बरसने लगना....मुझे अच्छा लग रहा था ।,सड़क घुमावदार थी। एक मोड़ पर पहुंच कर देखा कि...बाईं तरफ एक एंबेसडर कार खड़ी है।...झमाझम बारिश हो रही है ।
मैंने सोचा -'काश इस गाड़ी में मुझे लिफ्ट मिल जाती? अभी भी चुट्टुपालू 5 किलोमीटर दूर था । मैं आगे बढ़ा। कार का बोनेट खुला हुआ था। एक व्यक्ति जींस पैंट शर्ट पहने इंजिन को ठीक कर रहा था । माथे पर बांस के पतले पत्तों का हैट पहने होने के कारण....तथा उसका चेहरा आगे झुका होने के कारण...मैं देख ना सका।
वर्षा की रफ्तार तेज हो गई थी। वह व्यक्ति पानी से बुरी तरह भीग चुका था। मैं छाते को उसके माथे पर सरकाते हुए पूछा -
"क्या आप मुझे 'चुट्टुपालू' तक लिफ्ट दे सकेंगे..?"
"..क्यों नहीं ..?अगर गाड़ी ठीक हो गई तो...."
ऐसा लगा किसी ने वीणा के तारों को छेड़ दिया हो!..यह आवाज थी ...?..या कोई जादू...?
अगले ही पल उसने बोनट से अपने चेहरे को हटाया। मेरी ओर देखा । चेहरे पर संतुष्टि एवं इत्मीनान के भाव थे। आंखें छोटी...अधखुली पलकें ..गोरा रंग...सौंदर्य की मूर्ति...।माथे से हैट उतारते ही ...लंबे चमकीले बाल।
यह क्या ..?जिसे मैं युवक समझ रहा था -वह 20- 22 वर्षीया एक युवती थी । मेरे शरीर में एक अजीब सी गंध आने लगी । नाक में एक अजीब सा गंध समाया । चंपा के फूल का....। आंखों को थोड़ा और सिकोड़ती हुई बोली-
" आइए, बैठिए। आपके आते ही मेरी गाड़ी ठीक हो गई उसने बोनेट को लगा दिया। ड्राइविंग सीट पर बैठ गई। गाड़ी को स्टार्ट करते हुए बोली -
"आगे ही बैठ जाइए। "
मैं दूसरी तरफ से अगले दरवाजे को खोला ..छाते को मोड़ कर हाथ में पकड़ा और गाड़ी में बैठ गया।धीरे-धीरे कार पहाड़ी सड़क पर बढ़ती चली गई ।
ईश्वर भी कभी कभी कितना निकट होता है..!मन की बात को तुरंत समझ लेता है । मुझे साधन चाहिए था...साधन मिल गया था । इतनी खूबसूरत लड़की का साथ पाकर मन ने अंगड़ाई ली । और परिचय बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने बातें शुरू की ।
"..लगता है ,आज बहुत बारिश होगी।"
."......................................................... "
"लोग रोज -रोज बिहार बंद करवा देते हैं। दूसरों की समस्याओं को समझते ही नहीं। "
"............................................................ "
"आप कहां रहतीं हैं ...?"
"यहीं लोकल हूं। "लड़की ने पहली बार मौन तोड़ा ।
"क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं? "
वह तब तक सामने से अपनी नजर को एक पल के लिए भी नहीं हटाई थी। अचानक मेरी ओर देखती हुई तेजी से गाड़ी को दाईं ओर मोड़ी । मैं लगभग उस पर गिरते-गिरते बचा।
एक मोड़ थी।
"क्या करेंगे मेरा नाम पुष्कर- मिस्टर अविनाशभार्गव?"
'अरे !यह तो मेरा नाम भी जानती है ।
"आपने मेरा नाम कैसे जान लिया? "
मैं विस्मित नेत्रों से उसकी ओर देख रहा था ।
"आपके दोस्त ने बता दिया। "
उसकी हंसी की खनखनाहट ऐसी लगी...जैसे किसी ने जलतरंग छेड़ दिया हो।
"मेरा दोस्त ..?कौन सा दोस्त..?मेरा कोई दोस्त नहीं है।" "वही दोस्त जिसे आप हाथ से पकड़े हुए हैं और गोद में लेकर बैठे हैं ।"
वह खिलखिला उठी। मैंने नजरें झुकाई।मेरी गोद में मेरा बैग था । उसके ऊपर स्टिकर में मेरा नाम लिखा था- 'मिस्टर अविनाश भार्गव
शिक्षक,.............स्कूल रामगढ़ कैंट (हजारीबाग )झारखंड ।'
तो यह बैग पर लिखें मेरे नाम के स्टिकर को पढ़कर मेरा नाम जान गई। बहुत चालाक है शायद!
"मैंने आपका नाम पूछा। आपने अपना नाम तो नहीं बताया । "
"नी.......... त.... ता....... s....s...s... ! "
उसकी आवाज सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए ।मैंने देखा उसकी छोटी-छोटी अधखुली आंखों में ,लाल -लाल डोरे तैर रहे थे। इस बार उसकी आवाज बदली हुई थी । ऐसा लगा -मानो पास में किसी नाग ने तेज फुफकार मारा हो। मैं रोमांच से भर गया...!चुप हो गया ...।
मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे थे। उसके बारे में जानने के लिए । उसके चेहरे से लग रहा था- मानों बातचीत करना पसंद नहीं कर रही है।
मेरे भीतर का नपुंसक पुरुष जाग उठा । कुछ आहत सा महसूस किया मैंने। फिर मैं खिड़की की दूसरी तरफ घाटियों में उतर रहे बादलों को देखने लगा । बरसात थम गई थी । परंतु चारों ओर छाए कुहासे से अंधेरा सा कर दिया था। एक मिनट की चुप्पी के बाद मैंने धीरे से कहा- "गाड़ी रोक दीजिए । मेरा आवास आ गया। अचानक गाड़ी को ब्रेक लगी। गाड़ी रुक गई।
मैं दरवाजे को खोलकर गाड़ी से उतर पड़ा ।
"धन्यवाद! आपने जो लिफ्ट दिया...वरना अभी मैं घाटियों में अपनी टांगे घसीट रहा होता ...।"
वह आंखों को सिकोड़कर बोली-
" नॉट मेंशन ..!आपका साथ अच्छा लगा। "
फिर कुछ एक अजीब सी गुदगुदी मन के भीतर ....कितनी मधुर और मादक आवाज....गाड़ी सरक कर आगे बढ़ गई। मैं गाड़ी का नंबर पढ़ने लगा-
BRM 785... चौथा अंक धूल मिट्टी से ढका होने के कारण पढ़ा नहीं जा सका।
"फिर आगे क्या हुआ सर...? " कक्षा के एक छात्र ने बेसब्री से पूछा-
"क्या फिर उससे कभी मुलाकात हुई सर..? "
"आं... हां..... " मैं चौंक गया। कहानी सुनाते सुनाते सचमुच मैं उस लड़की के नशे में डूब गया था।
"हां, वह कई बार मिली। चार -पांच बार तो मिली ही। "
"आगे बताईये सर.. फिर क्या हुआ? " कई छात्रों की सम्मिलित आवाज।
कक्षा में ताज़ी हवा झोंका आया। 'आह' इस झोंके में वही खुश्बू थी- जो उस दिन उसकी गाड़ी से उतरने के बाद मैं बहुत देर तक महसूस कर रहा था।
वैसी ही खुशबू। वही गंध...चंपा के फूल का...कटीली चंपा .0यह कटीली चंपे के फूल की ही खुशबू थी...लेकिन चंपा के फूल की खुश्बू ? ....यहां कैसे ..?भ्रम होगा....?...नहीं नहीं ....!मैं इस गंध को स्पष्ट सुंघ रहा हूं ....भला उसे कभी भूल सकता हूं ...?
गाड़ी से उतरने के बाद उस दिन...मेरे चारों ओर चंपा के फूल की खुशबू तैरती गई .।
धीरे-धीरे वह घटना सामान्य सी बन गई । मैं लगभग भूल ही गया था। मेरा रोज का आना जाना लगा रहता। पर पता नहीं क्यों ...जब भी मैं घाटी से गुजरता हूं ,प्रकृति की छटा में इतना खो जाता हूं कि....आसपास का कुछ भी ख्याल नहीं रखता ।
उस दिन!
जैसे ही ट्रेकर उस स्थान से आगे गुजरी ....मुझे लगा मेरी दाईं तरफ हवा में कोई तैरता हुआ आया और बगल में बैठ गया ।...ठीक ठीक नहीं कर सकता...कि वहां पर कोई बैठा था या....पहले से ही बैठा था। नजरें बाई और हल्का घुमाया तो देखा कि...वही युवती थी -'नीता'!
"हेल्लो !आप अभी बैठीं क्या ?"मैंने आश्चर्य में भरकर पूछा।
"नहीं, मैं 'ललकी घाटी' में चढ़ी थी । "उसने मेरी तरफ बिना देखे ही कहा । मेरी नथूनों में चंपा फूल की खुशबू समा रही थी।
आज वह नीले रंग के साड़ी ब्लाउज में थी । चोटी का हेयर स्टाइल बदला हुआ था- छोटी लड़कियों की तरह दो चोटियां थीं। एक चोटी आगे की ओर तथा एक पीछे की ओर सवारी गई थी। आज ट्रैकर में सवारियों बिल्कुल कम थीं। पिछली सीट की सवारियां 'ललकी घाती में उतर गई थीं शायद ...।
केवल पीछे खलासी, बीच में हम दोनों तथा आगे ड्राइवर। चंपा फूल की खुशबू का नशा हो रहा था। मैंने पूछा -
"क्या आप साथ में हमेशा चंपा का फूल रखती हैं? "
"....................... "
वह चुप रही।
" किससे बातें कर रहे हैं आप...?
अकचकाकर ड्राइवर ने पूछा । मैं अपमान समझकर सामने देखने लगा।
'बहुत घमंडी है। जैसे ही दाई मोड़ आई- गाड़ी की रफ्तार कम हो गई । मैंने देखा वह उतर रही है।
आश्चर्य!
गाड़ी रुकी तो थी नहीं पर वह उतर कैसे गई .?
छोटी और अधखुली आंखों से मेरी ओर वह देख रही थी। उसे लगा...जैसे मैं भी उतरूंगा । मैं बेरुखी से नजरें हटा लिया ।
ट्रैकर सरपट दौड़ी चली जा रही थी। मैं समझ गया कि बड़ी घमंडी युवती है ।...लेकिन मैं बार-बार उसमें दिलचस्पी क्यों ले रहा हूं? ....किसी अजनबी से मुझे क्या लेना देना?....रोज-रोज की जिंदगी में तो सैकड़ों लोग मिलते हैं...लेकिन सबसे जान पहचान थोड़ी ना बढ़ाई जाती है ...?
गाड़ी के आगे बढ़ते ही ड्राइवर ने पूछा-
" आप किस से बात कर रहे थे सर..?"
मैंने कहा-"उस युवती से, जो मेरे बगल में बैठी थी...'ललकी घाटी' में चढ़ी थी और अभी अभी उतरी थी।"
ड्राइवर आश्चर्य में पड़ गया-
" कौन सी युवती सर ?'ललकी घाटी' में तो सारी सवारियां उतर गईं थी। केवल आप थे अकेले...जो चुट्टुपालु मेंर
उतरेंगे । "
"क्य...या...?मेरे बगल में वह लड़की नहीं थी क्या? " "क्या मजाक करते हैं सर ...?ठहाका लगाया ड्राइवर ने ।
फिर एक दिन!
वही स्थान!
सड़क पर खड़ी थी।ट्रैकर को रुकने का इशारा कर रही थी। जैसे ही ट्रैकर रूकी, वह मेरे पास आई-
" प्लीज, नीचे आइये। आपसे कुछ बातें करनी हैं। "
"मुझे कुछ नहीं सुनना। " मैंने बेरुखी से जवाब दिया।
"प्लीज...!"
वह मेरा हाथ पकड़ ली। फिर वही जानी पहचानी खुश्बू लगी। एक नशा- सा। सभी सवारियों की नजरें हम दोनों पर।... मैं तमाशा बनना नहीं चाहता था। उसकी आँखों में लरजते आंसू देखकर समझा.. किसी मुसीबत में हो शायद। मंत्र चालित सा नीचे उतर गया।
ट्रैकर आगे बढ़ गया। मैं उसके पीछे पीछे घाटी में पतली पगडंडी पर चलने लगा-चुपचाप।
"क्या कहना चाहतीं हैं आप? " मैंने मौन तोड़ा।
"पास में ही मेरा बंगला है ।एक पुराना बंगला -'नीता कुटीर' ।यह समुद्र तट से 14000 फीट की ऊंचाई पर है।...इसी से लोग इसे 14 हजारी बंगला भी कह कर पुकारते हैं । "वह ठठा कर हंस पड़ी।
"वही चल कर ...आराम से बैठ कर ...बातें करेंगे। "
"क्या बात करेंगे?" मैंने पूछा।
"आप भूत प्रेत पर विश्वास करते हैं ?"
"बस इतनी सी बात के लिए मुझे गाड़ी से उतार लाईं...?"मैं कुछ नाराज सा हो रहा था।
"नहीं- नहीं, बात ऐसी है कि मेरे पापा यहीं फॉरेस्ट रेंजर थे। पिछले ही वर्ष एक एक्सीडेंट में मेरे पापा मम्मी और भैया तीनों गुजर गए। कार मैं ही चला रही थी। परंतु इतना सारा दुख इस जीवन में झेलने के लिए मैं ही बची रह गयी। कितना अच्छा होता है यदि मैं भी उनके साथ मर गई होती "
कहते कहते हैं वह फफक कर रो पड़ी।
अचानक मेरे मुंह से निकल पडा-
"ओह! "
मेरे मन का मैल धुलने लगा था।
"उस दिन पापा के मना करने पर भी मैं नहीं मानी । गाड़ी मैं ही चला रही थी। जिस जगह पर आप से मेरी पहली मुलाकात हुई थी....उसी जगह पर एक्सीडेंट हुआ था। आप मेरी सहायता करेंगे ...?"
उसकी छोटी खुली पलकों में आंसू भरे थे। मेरा मन भारी हो रहा था। हम लोग एक समतल भूमि पर खड़े थे। उजाला समाप्त हो गया था। सामने ऊंची पहाड़ी पर एक पुराना बंगला दीख रहा था। एक पतली पगडंडी से हम ऊपर की ओर जा रहे थे। दोनों तरफ घनी झाड़ियों एवं वृक्ष थे।
"वही मेरा बंगला है । थक तो नहीं गए...?बस 10 मिनट का रास्ता और है ।वह आगे बढ़ी। मैं धीरे-धीरे उसके पीछे पहाड़ी पर चढ़ने लगा।
"मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं ?"मैंने पूछा।
"मेरे पापा मम्मी और भैया का भूत मुझे दिख पड़ता है। हर बार वे गिड़गिड़ाते हैं.....'नीता हमारी आत्मा भटक रही है....तुम गया में पितृपक्ष में हमारा पिंडदान कर दो....तभी मुक्ति मिलेगी...वरनाप प्रेतयोनि में भटकते रहेंगे ।" अचानक मेरी ओर मुड़कर वह खड़ी हो गई-
" मैं लड़की हूं ना! शायद लड़की पिंडदान की अधिकारिणी नहीं होती। मेरा भी गोत्रभार्गव है। ....शायद आप भी मेरे ही गोत्र वाले हैं।......पापा का कोई उत्तराधिकारी नहीं बचा। ....क्या उनका धर्म पुत्र बनकर आप उनका पिंडदान नहीं कर सकते ?.....क्या इस अभागी लड़की को धर्म बहन बना कर, इतना उपकार नहीं कर सकते?.....मैं इसके लिए अपना सारा धन आपको सोंप सकती हूँ।"
उसके सर में याचना थी। मैं इस बात का क्या जवाब देता? उस अनजान यु्वती से कोई रिश्ता जोड़ नहीं पा रहा था।....वह धर्म भाई का रिश्ता सामने रख दी।
मेरी आंखों में चित्तौड़ की महारानी कर्मवती की तस्वीर कौंध गई। वह तो दूसरे धर्म के व्यक्ति हुंमायुं को राखी बांध धर्म का भाई बना चुकी थी।
"आपने कोई जवाब नहीं दिया? क्या आप चाहते हैं कि मेरे परिवार वालों की आत्मा भटकती रहे? "
उसने दीनता के श्वर में पूछा। मेरे भीतर भारतीय संस्कृति अंगड़ाई लेने लगी ।
,"ठीक है अगले वर्ष पितृ पक्ष में पिंडदान अवश्य कर दूंगा।यदि मेरे पिंड दान करने से उनकी आत्मा को मुक्ति मिलेगी तो मुझे बहुत खुशी होगी। "
मैं कुछ हल्कापन महसूस कर रहा था। वह मुस्कुरा पड़ी। "आप एक वादा और कीजिए कि हमारे मिलने की इस घटना का वर्णन भूल कर भी किसी से न करेंगे ...?"
"क्यों ...?इसमें क्या हानि है ..?"
"यदि आप वादा तोड़ेंगे तो ....!"
"तो ............?"
"तो वही दिन हमारी आखिरी मुलाकात का दिन होगा..."
"....ओह..!"
"तो आप अपना वादा याद रखेंगे ना...?..सामने उस बंगले में चलकर बैठें। मैं 10 मिनट में जंगली फुल चूनकर आती हूँ। घर पर नौकर मुंगलू होगा । उससे कहिएगा- मैं आपको साथ लाई हूं । "
कहती हुई वह जंगल में तेजी से चलकर खो गई। उसके आगे बढ़ते ही चंपा का एक फूल गिरा । मेरे सामने एक पुराना बंगला था। जो कंटीली तारों से घिरी थी। फाटक को खोलकर भीतर घुंसा।
एक आदमी अजीब नजरों से मुझे घुर रहा था।मैंने पूछा-
" नीता कुटीर यही है न..?"
" क्यों...?"
"तुम मुंगलू हो न...?"
"हां...फिर...?"
मुझे लगा -नौकर अशिष्ट है। वह लगातार मेरी ओर आग्नेय नेत्रों से देखे जा रहा था। एक बात मेरी समझ से परे थी -इतनी देर में एक बार भी वह अपनी पलकों को नहीं झपकाया था । उसकी आवाज बेहद ठंडी और कर्कश थी । मैं बरामद में पड़ी बेंत की खुशी पर बैठ गया। उस कुर्सी पर काफी धूल जमा थी । मानो सालों से उसे पोंछा न गया हो । सामने सफेद रंग की एक अंबेस्डर कार खड़ी थी। जिसका आगे का पूरा हिस्सा पिचका और कुचला था । केवल पीछे का हिस्सा सही सलामत था।उस पर काफी धूल और मिट्टी जमा थी । दायीं ओर चंपे का फूल का एक पौधा था -जिस पर केवल एक ही फूल खिला था।.....लालिमा लिए पीली पंखुड़ियों वाला । मैं मुंगलू से संबोधित हुआ-
"मैं नीता के साथ आया हूं । अभी 10 मिनट में वह भीआने वाली है। "
"अच्छा .....!अनीता मेमसाहब आपसे मिलीं...?"
उसके चेहरे पर व्यंग्य झलक रहा था।
"हाँ, वह अभी मेरे ही साथ आई है। "
"अच्छा! भीतर तो आइए ...!"उसने कहा।
मैं उसके पीछे पीछे बरामदा पारकर भीतर आया।।
एक विशाल कक्ष!
धूल और मकड़जाल से भरा विशाल कक्ष!
दीवार पर कई तस्वीरें। एक नीता की...एक मुंगलू की...तीन और तस्वीरें थीं-...शायद उसके माता-पिता एवं भाई की होगी।
दूसरी दीवार एक और तस्वीर थी। उसे ध्यान से देखा- जैसे वह तस्वीर मेरी वर्षों पहले की ही हो । किंतु अस्पष्ट था। इस तस्वीर के नीचे ताजा चंपा का फूल गिरा था। जबकि अन्य तस्वीरों पर सूखे फूलों की मालाएँ थीं। मगर जलती हुई अगरबत्ती से चंपा फूल की गंध आ रही थी।
मुंगलू की मिमियाती आवाज से चौंका-
"यह जो तस्वीर है ...अकेली! वह नीता के भाई अविनाश भार्गव की तस्वीर है। बाहर में चंपा का फूल का पौधा उसीने वर्षों पहले लगाया था -..! जब उसके पापा तस्वीर को दीवार से टांगकर बोले थे -
"यह तुम्हारा भाई कभी न कभी घर अवश्य लौटेगा। "
मैं आवाक् रह गया। अपनी ही तस्वीर को टंगा देखकर। यह क्या रहस्य है..!
"यह भी देखिए"- मुंगलू कह रहा था-
इस कार का इसका एक्सीडेंट 1996 में हुआ था । इसमें सभी बैठे थे-...नीता का भाई...मम्मी पापा...और...मैं....।कार नीता ही चला रही थी । इसमें सभी मर गए-मैं ..नीता के माता पिता और भाई...सभी मर गए थे और आप कहते हैं कि नीता से मिला हूँ..."
कहते कहते वह कार के पीछले भाग तक आया।मैं भी उसके पीछे पीछे आ रहा था-।
भौंचक!
कार एक्सीडेंट 1996 में हुआ और अभी 2000 ईस्वी चल रही है। यह क्या गोरखधंधा है...!
मैं फिर चौक उठा। क्या कोई स्वप्न देख ह रहा था- नंबर प्लेट वही..!
BRM _875...
चौथा अंक धूल मिट्टी से वैसा ही ढका था।यह गाड़ी वहीं थी । जिस पर कुछ दिन पहले मैंने लिफ्ट लिया था। उस समय बिल्कुल ऐसी थी और आज वर्षों पहले की धक्का खाई टूटी-फूटी लग रही थी। मैं जब तक समझता तब तक को मुंगलू बंगले की सीढ़ियां चढ़ रहा था। यह क्या..? उसका हाड़ मांस का शरीर कंकाल सा दीखने लगा। उसके पैर के दोनों पंजे उल्टे थे।
मैं भय से एकबारगी कांप उठा।
धड़ाम्!
मैं गिरा। होश न रहा। जब होश आया तो अपने कमरे के बिस्तर पर था। आंख खुली तो लोगों की भीड़ मेरे चारों ओर थी।
लोगों ने बताया _मैं चौदह हज़ारी बंगले के पास वहाँ बेहोश गिरा पड़ा था-जहां शिलालेख लगा है-
'अजय भटनागर, आई पी एस, ने............. को उद्घाटन किया। '
तिवारी जी अपनी कार से आ रहे थे तो उन्होंने ही आपको बेहोश देखा तो उठाकर ले आए। "
"फिर आगे क्या हुआ सर? " कक्षा की सन्नाटा को तोड़कर एक छात्र ने पूछा।
कमरे में केवल चारों पंखे की घुमने की आवाज के सिवा कक्षा के सारे छात्र छात्राओं की थड़कन की आवाज स्पष्ट सुनी जा सकती थी।
"फिर...!...... "
लगा हवा का एक सरसरी झोंका कक्षा से गुजरा। मुझे स्पष्ट सुनाई दिया -
".. आपने वादा तोड़ दिया... मुझसे मिलने की बात आपने बच्चों को बता दिया... मैं आपसे कभी नहीं मिलूँगी.... " अरे! यह नीता की आवाज थी।
मैं तेजी से कक्षा के बाहर निकला। दरवाजे पर चंपा का एक ताजा फूल गिरा था...... दूर दूर तक कोई नहीं था... सिवा सन्नाटे के........!
मैं झुक कर फूल उठा लिया।
- अवध किशोर मिश्र, लखनीखाप,
औरंगाबाद, (बिहार)
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