जानिए क्या है? सूर्य का पारिवारिक जीवन


    परम पिता ब्रह्मा के पुत्र के पुत्र हुए मरिचि। महर्षि मरिचि के पुत्र हुए ऋषि कश्यप जो वर्तमान सृष्टि के आदि पुरूष कहे जाते हैं।इनकी दो पत्नी थी। पहली पत्नी से दानवों की उत्पत्ति हुई और दूसरी पत्नी से देवताओं का जन्म हुआ। 

    देवताओं में सर्व प्रथम मेरा जन्म हुआ। नाम पडा "आदिदेव"। जब मैं माता के गर्भ में था तब माता अदिति बडे संयम से रहने लगी थी। मेरे पिता कश्यप को अपनी पत्नी का ऐसे कठोर तप निरत रहना ठीक नहीं लगता था। वे अनहोनी की आशंका से ग्रस्त रहने लगे। समय-समय पर माता को समझाते और ज्यादा तपस्या न करने को कहते।पर माता के उपर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पडता था। मां हमें तप:पुत बनाने पर तुली हुई थी। माता के इस आचरण को हमारे पिता समझ नहीं पाते थे और वे माता पर हीं शंका करते रहे। पिता को लगने लगा था कि शायद अदिति प्रसव करना नहीं चाहती है। इसलिए वह इतना कठोर तप करती जा रही है की किसी तरह से गर्भपात हो जाय।हमारे पिता चाहते थे हमारी संतान हो और वह हमारे वंशवृक्ष का पालक बने।पर माता के स्वभाव से वे विचलित थे। 

    एक दिन हमारे पिता माता के पास आये। आकर देखते हैं अदिति तो तप में लीन है। एकदम कृशकाय हो गई है।शरीर मरणासन्न पर चेहरा आभायुक्त। ऐसी स्थिति देखकर वे एक क्षण के लिए आपा खो दिये। माता से पुछ दिये... क्या तुम इस अंडे को मार दोगी?जो तुम्हारे गर्भ में पल रहा है। 

    मां आखिर मां होती है। स्वामी के ऐसे कर्कश वाक्य सुनकर माताजी को अपार दुख हुआ पर कुछ कही नही।वे अपनी बात हमारे पिता को समझाई।पिताजी भी अब कुछ कहने से बचते रहते थे। पर उनका जो भय था वह हटने का नाम नहीं लेता था। कुछ समय के पश्चात जब पूर्णगर्भ हुआ तब हमारा जन्म हुआ।पिता पिछली बात को स्मरण कर अपनी पत्नी के कठोर साधना का प्रतिफल समझ मेरा नाम मार्तंड रख दिया।मेरा जन्म अचला सप्तमी को हुआ। 

    मेरे बाद मेरे ग्यारह और भाई हुए। कुल मिलाकर हम बारह भाई थे। माता अदिति के संतान होने के कारण हम सभी भाई को लोग द्वादश आदित्य के नाम से जानने लगे। हलाकि हम अपने पिता के बडे संतान थे इसलिए हमारा एक नाम काश्पेय भी है।हमने अपने माता-पिता के अंश का पूर्णतः मान रखा तो एक नाम अंशुमान भी मिला। 


    मेरे दूसरे भाई का नाम अर्यमन हुआ तथा तीसरा भाई हुआ इंद्र। चौथे का नाम त्वष्टा पडा और पांचवे भाई को नाम मिला धाता। पर्जन्य हमारे छठ्ठे भाई  है,जबकि सातवें को लोग पूषा के नाम से जानते हैं।हमारे आठवें भाई का नाम भग और नौवें का मित्र हुआ। हमारे दशवें भाई को वरूण नाम मिला तथा विवश्वान ग्यारहवें हुए।बारहवे भाई का नाम विष्णु हुआ। ये हमारे अपने बारह भाई है। 

    पिता ने हम सभी भाईयों को यथायोग्य कर्तव्य और अधिकार दिया।हम बारह भाईयों को बारह राशियों का स्वामी बना दिया।हमें कर्तव्य के रुप में सब के आत्मरूप में प्रतिस्थापित किया गया। वह भी इसलिए की हम तो प्रजापति के नेत्ररूप जो थे।भाई अर्यमन को पितरों का दायित्व मिला।जो भी प्राणी अपने पितरों के प्रति जो श्रद्धा व्यक्त करता है, वो सब उन पितरों तक पहुंचा देने का कार्य वे करते है। 

    शरीर का संरक्षण कार्य इंद्र को मिला है।ये देवताओं के अधिपति हैं। स्वर्ग का साम्राज्य इन्ही के अधीन है।त्वष्टा को कार्य मिला है वनस्पति के रक्षण वर्धन का।जो भी वनौषधि है उनमें जो जीवन रक्षक गुण है उसकी रक्षा करना और उसकी उपादेयता साबित करना हीं उनका पुनिता कर्म है। 

    इस ब्रह्माण्ड में जो धारण करनी की शक्ति है उसके अधिष्ठाता हैं धाता। ये धाता हीं विधाता बनकर सब विधान बनाते हैं और उसको लागु करवाते हैं। जो भी इस धाता के विधान के खिलाफ जाता है उसकी धारिता खतरे में पड जाती है।पर्जन्य को बादल का अधिपति बनाया गया है। वे बादलों के निर्माण तथा उसके कार्य व्यापार पर नियंत्रण रखते हैं। वर्षा कार्य इन्हीं के अधीन है। वे चाहें तो अतिवृष्टि कर दें या अनावृष्टि। सब उन्हीं की इच्छा पर है। 

    चराचर स्थावर जंगम में पुष्टि का रोपण करना पूषा के हाथों में हैं। कौन कैसे कहाँ से और किस प्रकार से पुष्ट होगा वे सब ससमय देखते जानते करते हैं। जहाँ कहीं पर आपको पुष्टि नजर आ जाय समझ लें पूषा देव की महती कृपा है उसके उपर। 

    भगवान के उपर भग का आधिपत्य है। इस जगत में जो भी आपको ऐश्वर्य,धर्म,यश, श्रेय,ज्ञान, वैराग्य आदि मिलते है सब पर उन्ही की कृपा है।भगवान के उपर भी हमारे भाई भग की हीं कृपा है जो अपना भाग पाते है।समय और काल से सब आबद्ध है। ये समय और काल के नियंता है मित्र। ये मित्रवत सब से अपना संपादित करवाते रहते है। कभी प्राणियों को दंड तो कभी दया का भी ये प्रावधान रचते है। वह भी मित्रता से। जहाँ कहीं भी मैत्री भाव है समझ लिजीए हमारे भाई मित्र की हीं कृपा है। 

    जल तत्व के पति हैं वरूण। वे जल पर हीं अपना साम्राज्य स्थापित किये हुए है। शीतलता, तरलता और सरलता इनके प्रधान गुण है। ये गुण वहीं दृष्टिगत होते हैं जहाँ वरूण देव की कृपा होती है।विवश्वान को विश्वेदेव के रक्षण का कार्य सौंपा गया। जबकि विष्णु को सब प्राणियों के हृदय में वास करने को कहा गया है।भावना इन्हीं के आदेश में रहती है और कार्य करती है। 

    हमारे पास एक दिव्य रथ है जो सात सुंदर घोडों से युक्त है।उसकी सबसे बडी बिशेषता यह है कि वह एक हीं चक्र का है। मेरा सारथी जो वह भी पंगु है मेरी कृपा से वह भी दिव्य रथगामी है। लोग उसे अरूण कहते है। इसी अरूण का छोटा भाई हमारे सबसे छोटे भाई विष्णु का वाहन गरूड है। 

    उपयुक्त समय पर हमारे पिता ने हमारी शादी करवा दी। हमारी पत्नी है संज्ञा जोकि जगत-त्वषटा विश्वकर्मा की पुत्री है और देवगुरु वृहस्पति की भगनि है।हम दोनों की संतति भी है।संज्ञा से हमे यम नामक पुत्र है और यमुना नाम की पुत्री है।शनि तथा अश्विनीकुमार भी मेरे हीं पुत्र है। पर कथा थोडी विचित्र है। 

    बात ऐसी है, कि संज्ञा हमारे तेज को सहन नहीं कर पाती थी। इसलिए वह हमारे साथ खुद को ढंग से संस्थापित नहीं कर पाती थी।इसके लिए वह अपने पिता से भी कईक बार आग्रह कर चुकी थी। पुत्री मोह में पडकर हमें विश्वकर्मदेव ने अपने अलौकिक चक्र पर चढाकर मेरे तेज का कर्षण भी किया। आज आप यत्र,तत्र, सर्वत्र जो तेज, अग्नि देखते हैं वे सब हमसे हीं छिटकर बिखरे हुए हैं।इतना करने पर विश्वकर्मदेव ने संज्ञा को हमारे पास भेज दिया। पर संज्ञा अब भी  वैसी हीं थी जबकि मैं बहुत बदल गया था। वह अब भी यही कहती थी की मैं तुम्हारे तेज को सहन नहीं कर पा रही हुं। 

    एक दिन वह दुखी मन से हमारे पास अपनी छाया छोड दी और खुद भाग चली। बहुत दिनों तक तो मुझे पता तक नहीं चला।हम छाया को हीं पत्नी मानते रहे। उस छाया के संसर्ग से मुझे एक पुत्र भी हुआ। उसका नाम हमने शनि रखा।पर हमारे बच्चे छाया को ताड गये थे। वह माता तो थी नहीं तो मातृत्व देती कहाँ है? बच्चों पर झल्ला जाती। कभी-कभी मार पिट देती। मेरे बच्चे उलाहना देते। मैं व्यस्तता के कारण उधर ध्यान नहीं दे पाता था। एकदिन तो स्थिति भयावह हो गई। मुझे मजबूर होकर बच्चों की बातें माननी पडी। ध्यान लगाया तो बात सच निकली। अरे! ये तो सचमुच में छाया है। 

    मैं चिंता में पड गया। यदि ये छाया है तो संज्ञा आखिर गई कहाँ। मैं खोज करने लगा। अंततः संज्ञा को मैं खोज लिया। लेकिन वो संज्ञा रूप बदल कर रह रही थी। मुझसे बचने के लिए वह अश्वा बन गई थी।अश्वा बनी संज्ञा के पास मै भी गया अपना रूप अश्व का हीं बनाकर। हम दोनों बहुत दिनों तक इसी रूप में खुब आनंद विहार किये। इसी समय हम दोनों को यमल पुत्र हुए अश्विनीकुमार।

    देव लोक के बाहर पृथ्वी लोक में भी हमरा वंश चला। आज भी लोग उसे सूर्यवंश के नाम से जानते है।जीस वंश में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जन्म लेकर मुझे गौरव प्रदान किया है। 

भारत का एक ब्राह्मण- संजय कुमार मिश्र"अणु"
वलिदाद, अरवल (बिहार), 8340781217, 9162918252

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