भाई बन्धु। वल्लमंडल (वल्लप्रदेश) और मरूमांड शिलालेखों में वल्लमण्डल का उल्लेख के बारे में बताया गया है। राजस्थान के जोधपुर के पास घटियाला नामक स्थान से प्राप्त प्रतिहार राजवंशी राजा कृक्क के शिलालेख में 'येन प्राप्ता: महाख्यातिस्त्रवण्यो: वल्लमाडयो का उल्लेख हुआ है। (एपी.इडि.जि. 9 पृ.280)। उक्त पंक्ति में वल्ल और मांड देशों के नाम समास रूप में दिये गये हैं। इससे यह अनुमान होता है कि ये दोनों देश परस्पर मिले गये थे। राजपूताना के शिलालेखों, लोक साहित्य एव लोक गीतों में 'मांड' जैसलमेर का सूचक है। यहां पर गाई जाने वाली एक राग का नाम मांड है। बिलाडरी के विवरण में इस राज्य की सीमारेखा अरब राज्य की सीमारेखा पर स्थित होना पाई जाती है। इसके विवरण के अनुसार 'जुनाइड' ने अपने अधिकारियों को मांड मरूममांड, वास्स तथा अन्य स्थानों पर भेजा था। उसने बेलमान तथा जुर्ज पर विजय प्राप्त की थी। मडमाड प्रत्यक्षत: मरूमांड के लिये प्रयुक्त होता है, जिसमें जोधपुर तथा जैसलमेर के कुछ भाग सम्मिलित हैं।
त्रिवणी प्रतिहार (परिहार) राजा शिलूक के 894 विकृस. के शिलालेख (घटियाला से प्राप्त) में भी 'त्रवणीवल्लदेशयों:' समासान्त पद है, जिससे यह सिद्ध होता है कि त्रवणी और वल्ल देष भी परस्पर मिले हुए थे। उक्त राजा के पूर्वजों की प्रशक्ति में लिखा है कि, 'शिलूक ने वल्ल देशों में अपनी सीमा स्थिर की तथा वल्लमण्डल देश के राजा भट्टी देवराज को पृथ्वी पर पछाड़ कर उसका छत्र छीन लिया था। कवि राजशेखर भी वि.स. 937 से 977 में विद्यमान था। अपनी काव्यमीमांसा में वह त्रवण देश की गणना भारत के पश्चिमी विभाग के देशों में करता है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि 'वल्लमण्डल' एक संयुक्तदेश का नाम था जिसकी सीमाएं काबुल से कालीबंगा तथा पंजाब से गुजरात तक स्थिर थीं। इसी देश पर चन्द्रवंशी भट्टी शासकों का शासन था। इसी वंश में देवराज भट्टी नामक पराक्रमी शासकी हुआ है। देवराज ने 'देरावल' नामक दुर्ग (जो अभी पाकिस्तान में है) का निर्माण कराया था। वल्लमण्डल के सम्बन्ध में जैसलमेर के राजनैतिक इतिहास (युगयुगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर) में विस्तारपूर्वक जानकार दी गई है।
शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों का मूलतान (पाकिस्तान) के पंजाब क्षेत्र का प्रान्त में श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा उसके कुष्ठ रोगों को मिटाने हेतु शाकद्वीप से 18 मग कुलों के मुख्यियायों को गरूड़ (विमान) या गरूड़ पक्षी पर बैठा कर लाया गया था। ये मग ब्राह्मण कर्मकान्डी वैद्य (चिकित्सक) ज्योतिषि आदि विभिन्न योग्यताओं के दक्ष ब्रह्म ऋषि थे। मग ब्राह्मणों ने साम्ब का कुष्ठ रोग निवारण कर उन्हें स्वस्थ बनाया और साम्ब द्वारा मुलतान में बनाये सूर्य मंदिर तथा एक जल कुंड की प्रतिष्ठा की। जल कुण्ड में नहाने से लोगों का कुष्ठ रोग मिट जाता था। उस जलकुण्ड की महिमा का हवाला राज तरंगिणी में दर्ज है। इस समय इनके 16 गोत्रों की परिवार जम्बूद्वीप के अन्य राज्यों में गुजरात, मारवाड़ सिन्ध पंजाब, कच्छ, भुज, उतरप्रदेश, मध्यदेश, बिहार, उड़ीसा आदि में बस गये। दो गोत्र वापस चले गये। दो गोत्र वापस क्यों चले गये? यह स्पष्ट नहीं है।
मग भोजकों के सम्बन्ध डॉ.जयचन्द शर्मा बीकानेर ने ऐतिहासिक परिपेक्ष में शाकद्वीप और शाकद्वीपीय ब्राह्मण सम्बन्ध में लिखा है कि महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने अपने राज्य का विस्तार गुजरात व बिहार तक कर लिया था। इस समय सात मग ब्राह्मण, चिकित्सक बिहार की ओर चले गये थे। सात कच्छ भुज तथा दो गोत्र वहीं रह गये थे। इनका विवाह यादवों के भोज वंशी कन्या से भुज में करा दिया था। क्योंकि अन्य ब्राह्मण अपनी कन्याओं को मगों को देने को तैयार नहीं थे। इन भोज कन्याओं से मग ब्राह्मण (शाकद्वीपीय) वंशजों की संज्ञा भोजक कहलाई। कुछ भुज के मग ब्राह्मण भोजक कहलाये। मरू मांड में मग कहलाई। 8वीं -9वीं शताब्दी में मग शिलालेखों के लिपि कृता मग थे। इस का प्रमाण जैसलमेर के राजनैतिक इतिहास नन्दकिशोर शर्मा द्वारा लिखित छठे अध्याय में दिया गया है।
बौद्ध धर्म
चक्रवर्ती राजा अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, उन्होंने सारी प्रजा को सनातन धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने का आदेश दिया था। भय से विवश होकर प्रजा ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। बौद्ध बन गये। ब्राह्मणों ने इस दु:ख को सहन किया। भारत के चारों दिशाओं में रहने वाले सनातन धर्म वाले जीवों को बहुत दु:ख हुआ। सनातन साहित्य को भी बौद्ध धर्मावलम्बियों ने जला डाला। राजा ने अपनी सता से बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। पूरी प्रजा जब बौद्ध बन गई तब उसे शांति मिली।
जो लोग वैदिक धर्म को मानते थे मरने तक दु:ख उठाया। सनातन धर्म के ग्रथों को जला तो दिया लेकिन बहुत से ग्रंथों को छिपा दिया था। बौद्ध धर्म बहुत मात्रा में फेलने के कारण, बहुत से सनातनी जीव वेदहीन होकर तकलीफ उठाते रहे। वेद धर्म से रहित होकर सारे लोग वेदों के परंपरागत सार को समझ नहीं सकते थे। ऐसी परिस्थिति में कापालिक बौद्धों का खंडन करने के लिए श्री शंकराचार्य ने अवतार धारण किया। अपने प्रभाव बल से उन्होंने अनेक श्ष्यि बनाये। मंडन मिश्र के साथ वाद-विवाद कर उसके मत का खंडन किया। उसे श्री सुरेशाराचार्य का नाम दिया तथा श्री शंकराचार्य की पदवी उसे दी। इस समय शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण भी बौद्ध बन गये थे क्योंकि मंडन मिश्र स्वयं शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे।
अपने साथी सुधन्वा को इस संबंध में समझौता करके पाखंडी बौद्ध मत को भारत से विदा किया। अपनी योग शक्ति से बौद्ध मत का हनन करके लोगों को सनातन धर्म पालने वाले बना दिए। अलग-अलग रूचि के जीवों को देखकर उनकी रूचि अनुसार देवों की स्थापना की। इस तरह पंचदेव की प्रतिमा को एकत्र कर एक स्थान पर स्थापित किए। एक मंदिर में जाने वाले को देव अनूकूल हो उसकी पूजा करें। जिससे किसी के मन में दु:ख न हो। जिस प्रकार वृक्ष की शाखाएं होती है उसी प्रकार ये वैदिक धर्म की शाखाएं ही गिनती है। जिसके परिणाम स्वरूप सनातन धर्म के मानने वाले सारे एक रूप का मानने वाले बन गए। उन्होंने स्वीकार किया कि भले ही पंचदेव को हम माने लेकिन सबके स्वामी तो नारायण ही है। देश काल की योग्य परिस्थिति का विचार करके सिद्धांतों को लोगों के अनूकूल बनाया। वे सिद्धांतों को लोकरूचि के अनुसार वर्णन किया। इसी समय शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण पंचायतन मंदिरों के पुजारी बनें।
उल्मुख भ्रमण
श्री शंकराचार्य बौद्धों से कहने लगे कि उल्मुख भ्रमण की तरह इस जगत को आप मिथ्या मानते हैं, उसे मैं स्वीकार करता हूँ। परन्तु अग्रि है यह सत्य है। और भ्रमण रूप मिथ्या है। इतनी बात पर बौद्ध लोग हार गये।
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