भाई बन्धु पत्रिका/पिछले भाग में हमने जाना कि शाकद्वीपी और शक के साथ मग भोजक ब्राह्मणों का उल्लेखों के बारें पढ़ा था। और जा हम मग ब्राह्मणों और जैसल कप की भविष्यवाणी के बारें में जानेंगे।
मग प्रशस्ति मिस्टर कनिंघम को गया जिले के गोविन्दपुर से 928 शक (वि.1063) का बड़ा षिलालेख मिला है। शिलालेख में 141 पंक्तियां हैं, जो संस्कृत भाषा में श्लोक रूप में उद्धृत हैं। इन श्लोकों में शाकद्वीपी मग ब्राह्मणों के एक वंश का परिचय तथा मग्ध देश के मान्य राजवंश का परिचय दिया गया है।
लेखक ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
देवताओं के देवता आदि देवता तीनों लोकों में मणिमय है। उन अरूण देवता की जय जय कार हो। वह अपने निवास स्थान से जिस स्थान को पवित्र करते हैं, वह स्थान दुग्ध सागर से घिरा है। उस शाकद्वीप के ब्राह्मण मग नाम से जगत् में प्रसिद्ध है। ये मग ब्राह्मण चक्र द्वारा सूर्य के छंटवाये गये तेज से अमेथूनी अविभूत हुए हैं। ये मग ब्राहा्रण चक्र सूर्य के छंटवाये गये तेज से अमेथूनी अविभूत हुए हैं। ये मग ब्राह्मण साम्ब द्वारा विमान से यहां लाये गये हैं। ये मग अपने आत्मतेज से सदा जय युक्त होते हैं। ये लोग अपनी विद्या तपस्या अपनी प्रगतिकारी यशों से सुशोभित हैं। इन मगों से बचा हुआ कोई भी तत्ववाद का रहस्य नहीं हैं। विद्या, विवके और विनय में द्विज जातियों के स्वामी राजा है। ये लोग नीति में निपुण, व्यवहार में चतुर और क्रियाकाण्ड में विलक्षण परदर्शी हैं। इस शिलालेख के उद्धरण न्यस्तकारी रूद्रदमन शूलपाणि ने इसे शक संवत् 1054 में उत्र्कीण किया। (यह शिलालेख कलकता, म्यूजियम (संग्रहालय) में रखा गया है। इसका विवरण कनिंघम के आर्कयोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट के भाग 16 पृष्ठ 65 छपा है। )
मग का अर्थ
पं. विश्वनाथ शास्त्री वेद व्याकरण तीर्थ ने 'मग ब्राह्मण उत्कर्ष' नामक पुस्तक में वर्णन किया है कि शाकद्वीपी से साम्ब की प्रार्थना पर जम्बूद्वीप के भरतखण्ड में आने वाले ब्राह्मण हैं। इनके गुणवाचक नाम अनेक हैं। मग शब्द की व्याख्या कई तरह से की गई हैं। 'म' से मंत्र उत्पादक और ग से गुरु के अर्थ में वैदिक व्याख्या है। 'म' से मार्तण्ड और ग से ज्ञान प्रकाशक पौराणिक व्याख्या है। भास्कर को भोग (नैवेद्य) चढ़ाकर भोजन करने वाले भोजक हैं। यज्ञों को शास्त्रोक्त विधि से सम्पन्न करने वाले ऋषिवकाचार्य (ऋतव्रत) हैं। यज्ञ करने कराने वाले का यज्जन भी कहा जाता है इसलिए ये याजक भी हैं। गिरि-कन्दराओं में योग साधना के कारण योगेन्द्र हैं। मंत्र का सस्वर गाने करने से मृग हैं। भूमि पर श्रेष्ठ होने के कारण भूदेव हैं। इस प्रकार शाकद्वीपी ब्राह्मणों के अनेक गुणवाची नाम, कर्म और ज्ञान भेद इनकी श्रेष्ठता को दर्शाते हैं।
सेवग के सेवक
हजारों वर्षों के निरन्तर धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों, सामाजिक उथल-पुथल, राजवंषों के उत्थान पतन तथा भौगोलिक परिवर्तनों का प्रभाव समस्त जातियों और धर्मों पर पड़ा। उसी तरह शाकद्वीपी मग भोजक ब्राहा्रण भी उससे बच नहीं सके। भारत में बौद्ध, जैन इस्लाम आदि धर्मों के कारण कई नवीन जातियों और सम्प्रदायों का उदय हुआ। भारतीय वर्ण प्रधान सामाजिक व्यवस्था में कर्म बदलने से वर्ण बदल जाता था। ब्राह्मण क्षत्रिय, क्षत्रिय वैश्य, शूद्र ब्राह्मण कर्म बदलने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। प्रारम्भ में कर्म के अनुसार उनका वर्ण बन जाता था तथा बाद में अलग-अलग व्यवसायों के कारण उन वर्णों के भी कई विभाग हो गये और उनके विवाह सम्बन्ध भी होने लगे। बौद्ध, जैन आदि धर्मों के उदय के कारण कई वर्णों के लोग इन धर्मों को मानने लगे लेकिन बाद में पुन: हिन्दू शासकों के उत्थान के समय पुन: वैष्णव या शैव बन गये। लेकिन कई मुस्लिम क्रुर - बर्बर शासकों ने तलवार के बल पर उनका धर्म और कर्म परिवर्तन कराया। इस समय कई कर्मानुसार जातियां बनी और उसकी उपशाखायें भी बन गई। जातीय कट्टरता आ गई। जिस प्रकार मुसलमानों में षिया और सुन्नी मुसलमान बने उसी प्रकार हर जाति में दूसरे कर्म परिवर्तन करके परिवर्तित हुए थे। परिवर्तित दसे तथा आदि बीसे कहलाने लगे। इन जातियों का नामकरण भी उनके व्यवसाय या कर्मानुसार हो गया। मग भोजक जो सेवा का कार्य करते थे उनको सेवग या सेवक कहा जाने लगा।
राजस्थान के रजवाड़ों के समस्त राज्य मंदिरों में मग ब्राह्मणों को सेवा कार्य सौंपा गया। इनकी जीविकोपार्जन के लिए खेत, खडीन, भवन, अन्न धन तथा लाग लगान सरकार की ओर से बांधे गए। जैसलमेर में लक्ष्मीनाथजी व तनोट के मंदिरों की सेवा का कार्य मथुरिया मग भोजक ब्राह्मणों को सौंपा गया तथा देवरा ब्राह्मणों की टीकमजी, रणछोडज़ी की सेवा सौंपी गई। मथुरिया का भोजका ग्राम और खडीन तथा देवरों को कोयरिया खडीन चन्द्रवंशी यादव भाटी शासकों द्वारा दिया गया।
मूलतान में सूर्य मंदिर
मूलतान में सूर्य मंदिर की प्रतिष्ठा के समय श्रीकृष्ण अर्जुन यादव वंश सदस्यान राजा महाराजा साम्बपुर पहुंचे। श्री कृष्ण ने स्वयं यथाविधि पाद्यार्थादि से मंगों का पूजन किया। सम्मान किया। और कहा कि आप धन्य है जो सदा सूर्य पूजन में रत रहते हैं। मगों द्वारा प्रतिष्ठा कार्य देखा। तेज निहारा। आनंदित होकर मगों को प्रणाम किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे द्विजराज, समस्त तीर्थ क्षेत्रों में निवास कर आपको वहां वैदिक यजन याजन का पुन: प्रचार करना होगा। मगों को अपना पुरोहित माना। आजीविका के लिए साम्बपुर के अतिरिक्त कुछ भूमि पंजाब, काश्मीर में प्रदान की। सर्व कार्य संपन्न होने के पश्चात साम्ब तीर्थाटन हेतु रवाना हुए। कोणार्क, बालार्क तीर्थो का निर्माण करवाया। यहां की पूजादि कार्य मग ब्राह्मण द्वारा ही हुआ। ये तीर्थ मगों के अधीनस्थ रहे। साम्ब के सखा देवराज सहदेव (मगध के राजा) ने मगों को गुरु माना, बहुत से ग्रामादि देकर अपने राज्य में बसाया। श्रीकृष्ण के सखा काशीराज कौशलेश्वर ने भी इनका यथाचित सम्मान कर अपने यहां इनकों बसाया।
जैसलू कूप की भविष्यवाणी
श्रीकृष्ण, अर्जुन मग ब्राह्मण के साथ द्वारिका के लिए प्रस्थान हुए। त्रिश्रृंग (त्रिकुट) मरूस्थल होकर मूलतान से द्वारिका गये। काकाभुशुण्डी की कथा का अर्जुन ने स्मरण किया। त्रेतायुग की तरंगिनी के समीप एक नदी निकली। सभवत: यह नदी सरस्वती नदी होगी। जिसके सम्बन्ध में आगे बताया गया है। इस नदी के समीप एक शिला पर उनके साथ में गए मग ब्राह्मण ने एक कविता लिखी थी। वे सब श्रीमाल (भीनमाल उषाखंड) की ओर घूमते हुए द्वारिका पहुंचे। इस शिला के सम्बन्ध में इसी तरह का कहा जैसलमेर के इतिहास में मिलता है। जैसलमेर गढ़ जिसे त्रिकुट गढ़ कहा जाता है। उसके उपर एक जैसलू नाम का कुआ बना है। पारम्परिक इतिहास प्रसंगों के अनुसार एक बार कृष्ण और अर्जुन मथुरा से मूलतान और मूलतान से द्वारिका जा रहे थे। मार्ग में मरूस्थल था। वहां पर पहले सरस्वती नदी चलती थी बाद में यह क्षेत्र मरूमंाड के नाम से प्रसिद्ध हो गया। त्रिकुट गढ़ पहाड़ी से निकलते समय अर्जुन को प्यास लगी। तब अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा कि मुझे बहुत प्यास लगी है। तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन की प्यास बुझाने के लिये सुदर्शन चक्र से एक कूप खोदा और अर्जुन की प्यास बुझाई। कई शताब्दियों बाद चन्द्रवंशी यादव भाटी जैसल नाम का रावल गढ़ बनाने के लिये उपयुक्त अनुकूल स्थान की खोज कर रहा था। तब उसे एक ब्राह्मण मिला और ब्राह्मण ने त्रिकुट गढ़ पर बने कूप को दिखाया। तथा पास में पड़ी एक षिला दिखाई इस पर लिखा था -
जैसल नाम नो नृपति यदुवंश में एक थाय।
किन्ही काल के मध्य में इण था रेसी आय।।
जैसल ने यही किला बनाया। जो जैसलमेर नाम से प्रसिद्ध है। तथा त्रिकुट पहाड़ी पर स्थित होने से इसे त्रिकुट गढ़ भी कहते है।
- नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर-मो.: 9413865665
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