भाई बन्धु/एक दरिद्र ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजर रहा था, बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया, किन्तु उस नगर मे किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अन्न नहीं दिया। आखिर दोपहर हो गयी तो ब्राह्मण दुःखी होकर अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा था, सोच रहा था “कैसा मेरा दुर्भाग्य है इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक नहीं मिला? रोटी बना कर खाने के लिए दो मुट्ठी आटा तक नहीं मिला ? इतने में एक सिद्ध संत की निगाह उस ब्राहम्ण पर पड़ी, उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली, वे बड़े पहुँचे हुए संत थे, उन्होंने कहाः “हे दरिद्र ब्राह्मण तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?”
यह सुनकर ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन् आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है”। महात्मा बोले, “नहीं ब्राह्मण मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं ,अभी भी वे पिछले जन्म के हिसाब से ही जी रहे हैं। कोई शेर की योनी से आया है तो कोई कुत्ते की योनी से आया है, कोई हिरण की योनी से आया है तो कोई गाय या भैंस की योनी से आया है, उनकी आकृति मानव-शरीर की जरूर है, किन्तु अभी तक उन में मनुष्यत्व निखरा नहीं है, और जब तक मनुष्यत्व नहीं निखरता, तब तक दूसरे मनुष्य की पीड़ा का पता नहीं चलता। "दूसरे में भी मेरा प्रभु ही है" यह ज्ञान नहीं होता। तुम ने मनुष्यों से नहीं, पशुओं से भिक्षा माँगी है”।
ब्राह्मण का चेहरा दुःख व निराशा से भरा था। सिद्धपुरुष तो दूरदृष्टि के धनी होते हैं उन्होंने कहाः “देख ब्राह्मण, मैं तुझे यह चश्मा देता हूँ इस चश्मे को पहन कर जा और कोई भी मनुष्य दिखे, उस से भिक्षा माँग फिर देख, क्या होता है”। वह दरिद्र ब्राह्मण जहाँ पहले गया था, वहीं पुनः गया और योगसिद्ध कला वाला चश्मा पहनकर गौर से देखा। ‘ओहोऽऽऽऽ….वाकई कोई कुत्ता है कोई बिल्ली है तो कोई बघेरा है। आकृति तो मनुष्य की है ,लेकिन संस्कार पशुओं के हैं, मनुष्य होने पर भी मनुष्यत्व के संस्कार नहीं हैं’। घूमते-घूमते वह ब्राह्मण थोड़ा सा आगे गया तो देखा कि एक मोची जूते सिल रहा है, ब्राह्मण ने उसे गौर से देखा तो उस में मनुष्यत्व का निखार पाया।
ब्राह्मण ने उस के पास जाकर कहाः “भाई तेरा धंधा तो बहुत हल्का है, औऱ मैं हूँ ब्राह्मण रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड को बड़ी चुस्ती से पालता हूँ। मुझे बड़ी भूख लगी है। इसीलिए मैं तुझसे माँगता हूँ। क्योंकि मुझे तुझमें मनुष्यत्व दिखा है”। उस मोची की आँखों से टप-टप आँसू बरसने लगे वह बोलाः “हे प्रभु, आप भूखे हैं? हे मेरे भग्वन आप भूखे हैं ? इतनी देर आप कहाँ थे ?” यह कहकर मोची उठा एवं जूते सिलकर टका, आना-दो आना वगैरह जो इकट्ठे किये थे, उस चिल्लर (रेज़गारी) को लेकर हलवाई की दुकान पर पहुँचा और बोलाः “हलवाई भाई, मेरे इन भूखे भगवान की सेवा कर लो ये चिल्लर यहाँ रखता हूँ जो कुछ भी सब्जी-पराँठे-पूरी आदि दे सकते हो, वह इन्हें दे दो मैं अभी जाता हूँ। यह कहकर मोची भागा, और घर जाकर अपने हाथ से बनाई हुई एक जोड़ी जूती ले आया, एवं चौराहे पर उसे बेचने के लिए खड़ा हो गया। उस राज्य का राजा जूतियों का बड़ा शौकीन था, उस दिन भी उस ने कई तरह की जूतियाँ पहनीं, किंतु किसी की बनावट उसे पसंद नहीं आयी तो किसी का नाप नहीं आया, दो-पाँच बार प्रयत्न करने पर भी राजा को कोई पसंद नहीं आयी तो राजा मंत्री से क्रुद्ध होकर बोला। “अगर इस बार ढंग की जूती लाया तो जूती वाले को इनाम दूँगा ,और ठीक नहीं लाया तो मंत्री के बच्चे तेरी खबर ले लूँगा।”
दैव योग से मंत्री की नज़र इस मोची के रूप में खड़े असली मानव पर पड़ गयी जिस में मानवता खिली थी, जिस की आँखों में कुछ प्रेम के भाव थे, चित्त में दया-करूणा थी, ब्राह्मण के संग का थोड़ा रंग लगा था। मंत्री ने मोची से जूती ले ली एवं राजा के पास ले गया। राजा को वह जूती एकदम ‘फिट’ आ गयी, मानो वह जूती राजा के नाप की ही बनी थी। राजा ने कहाः “ऐसी जूती तो मैंने पहली बार ही पहन रहा हूँ ,किस मोची ने बनाई है यह जूती ?”
मंत्री बोला “हुजूर यह मोची बाहर ही खड़ा है”
मोची को बुलाया गया। उस को देखकर राजा की भी मानवता थोड़ी खिली। राजा ने कहाः
“जूती के तो पाँच रूपये होते हैं किन्तु यह पाँच रूपयों वाली नहीं है,पाँच सौ रूपयों वाली जूती है। जूती बनाने वाले को पाँच सौ और जूती के पाँच सौ, कुल एक हजार रूपये इसको दे दो!”
मोची बोलाः “राजा जी, तनिक ठहरिये, यह जूती मेरी नहीं है, जिसकी है उसे मैं अभी ले आता हूँ”मोची जाकर विनयपूर्वक उस ब्राह्मण को राजा के पास ले आया एवं राजा से बोलाः “राजा जी, यह जूती इन्हीं की है।
”राजा को आश्चर्य हुआ वह बोलाः “यह तो ब्राह्मण है इस की जूती कैसे ?”राजा ने ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण ने कहा मैं तो ब्राह्मण हूँ, यात्रा करने निकला हूँ”।
राजाः “मोची जूती तो तुम बेच रहे थे इस ब्राह्मण ने जूती कब खरीदी और बेची ?”
मोची ने कहाः “राजन् मैंने मन में ही संकल्प कर लिया था कि जूती की जो रकम आयेगी वह इन ब्राह्मण देव की होगी। जब रकम इन की है तो मैं इन रूपयों को कैसे ले सकता हूँ ? इसीलिए मैं इन्हें ले आया हूँ। न जाने किसी जन्म में मैंने दान करने का संकल्प किया होगा और मुकर गया होऊँगा तभी तो यह मोची का चोला मिला है अब भी यदि मुकर जाऊँ तो तो न जाने मेरी कैसी दुर्गति हो ?
इसीलिए राजन् ये रूपये मेरे नहीं हुए। मेरे मन में आ गया था कि इस जूती की रकम इनके लिए होगी फिर पाँच रूपये मिलते तो भी इनके होते और एक हजार मिल रहे हैं तो भी इनके ही हैं। हो सकता है मेरा मन बेईमान हो जाता इसीलिए मैंने रूपयों को नहीं छुआ और असली अधिकारी को ले आया!”
राजा ने आश्चर्य चकित होकर ब्राह्मण से पूछाः “ब्राह्मण मोची से तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ?
”ब्राह्मण ने सारी आप बीती सुनाते हुए सिद्ध पुरुष के चश्मे वाली बात बताई, और कहा कि राजन्, आप के राज्य में पशुओं के दर्शन तो बहुत हुए लेकिन मनुष्यत्व का अंश इन मोची भाई में ही नज़र आया।
”राजा ने कौतूहलवश कहाः “लाओ, वह चश्मा जरा हम भी देखें।”राजा ने चश्मा लगाकर देखा तो दरबारियों में उसे भी कोई सियार दिखा तो कोई हिरण, कोई बंदर दिखा तो कोई रीछ। राजा दंग रह गया कि यह तो पशुओं का दरबार भरा पड़ा है उसे हुआ कि ये सब पशु हैं तो मैं कौन हूँ ? उस ने आईना मँगवाया एवं उसमें अपना चेहरा देखा तो शेर! उस के आश्चर्य की सीमा न रही, ‘ये सारे जंगल के प्राणी और मैं जंगल का राजा शेर यहाँ भी इनका राजा बना बैठा हूँ।’ राजा ने कहाः “ब्राह्मणदेव योगी महाराज का यह चश्मा तो बड़ा गज़ब का है, वे योगी महाराज कहाँ होंगे ?”
ब्राह्मणः “वे तो कहीं चले गये ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही और बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।”श्रद्धावान ही ऐसे महापुरुषों से लाभ उठा पाते हैं, बाकी तो जो मनुष्य के चोले में पशु के समान हैं वे महापुरुष के निकट रहकर भी अपनी पशुता नहीं छोड़ पाते। ब्राह्मण ने आगे कहाः "राजन् अब तो बिना चश्मे के भी मनुष्यत्व को परखा जा सकता है। व्यक्ति के व्यवहार को देखकर ही पता चल सकता है कि वह किस योनि से आया है।
एक मेहनत करे और दूसरा उस पर हक जताये तो समझ लो कि वह सर्प योनि से आया है क्योंकि बिल खोदने की मेहनत तो चूहा करता है ,लेकिन सर्प उस को मारकर बल पर अपना अधिकार जमा बैठता है।”अब इस चश्मे के बिना भी विवेक का चश्मा काम कर सकता है ,और दूसरे को देखें उसकी अपेक्षा स्वयं को ही देखें कि हम सर्पयोनि से आये हैं कि शेर की योनि से आये हैं या सचमुच में हममें मनुष्यता खिली है ? यदि पशुता बाकी है तो वह भी मनुष्यता में बदल सकती है कैसे ?
गोस्वामी तुलसीदाज जी ने कहा हैः
बिगड़ी जनम अनेक की, सुधरे अब और आजु।
तुलसी होई राम को, रामभजि तजि कुसमाजु।।
कुसंस्कारों को छोड़ दें… बस अपने कुसंस्कार आप निकालेंगे तो ही निकलेंगे। अपने भीतर छिपे हुए पशुत्व को आप निकालेंगे तो ही निकलेगा। यह भी तब संभव होगा जब आप अपने समय की कीमत समझेंगे मनुष्यत्व आये तो एक-एक पल को सार्थक किये बिना आप चुप नहीं बैठेंगे। पशु अपना समय ऐसे ही गँवाता है। पशुत्व के संस्कार पड़े रहेंगे तो आपका समय बिगड़ेगा अतः पशुत्व के संस्कारों को आप बाहर निकालिये एवं मनुष्यत्व के संस्कारों को उभारिये फिर सिद्धपुरुष का चश्मा नहीं, वरन् अपने विवेक का चश्मा ही कार्य करेगा और इस विवेक के चश्मे को पाने की युक्ति मिलती है हरि नाम संकीर्तन व सत्संग से!तो हे आत्म जनों, मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है।बिन मानवता के मानव भी, पशुतुल्य रह जाता है।
जय-भास्कर...
- आचार्य श्री लक्ष्मी नारायण पाण्डेय डिब्रूगढ़ असम।-9435908664.
(संरक्षक, सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासंघ राष्ट्रीय)
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