पढ़े क्या है? मैं...हम...संगठन...समाज...


    भाई बन्धु/तेजी से बदलता युग, सिमटते फासले और उतनी ही तेजी से सिमटता हमारा सामाजिक दायरा। जहाँ पहले समुदाय के लिए संगठन और संगठन के लिए हम उसके बाद स्वयं का नम्बर आता था वहीं आज इसका उलटा सामाजिक क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। आज समाज का कर्णधार, उसे सर्वश्रेष्ठ बनाने वाला व्यक्ति पहले अपने लिये, अपने को सर्वमान्य करने के लिए अपने जैसे लोगों को जोड़कर मैं से हम बनता है और समाज में थोपित होता है और संगठन का निर्माण समाज की अवधारणा को तोड़ते हुए अपने सिद्धांत, अपनी हठधर्मिता और अपने कार्य संपादित करने हेतु करता है, उसे कोई सरोकार नहीं समाज के उत्थान से, जागरूकता से। उसे परवाह भी नहीं समाज की जगहँसाई से जिसका सेतू वह खुद बन रहा है, उसे फिक्र है तो बस इतनी कि जैसे भी हो, जिस तरह से हो जिस कीमत पर हो अपना नाम अपनी चर्चा होनी चाहिए। अनेक लोग इस बात से व्यथित हो रहे है जिन्होंने इस समाज को एक मुकाम तक ले जाने में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है, वे कुंठित हैं तनावग्रस्त हैं, लेकिन मौन हैं उठापटक व आरोप प्रत्यारोप के चलते। क्या कर रही है महासभा, किस का इन्तजार कर रहा है महासंघ दोनों के दो-दो रूप और दोनों में ही पद से, कुर्सी से फेविकोल के जोड़, की तरह चिपके लोग। महासंघ के बारे में मैं तो कहना ही व्यर्थ होगा क्योंकि महासंघ का इतिहास और उसकी सर्वमान्यता समाज में हो ही नहीं पायी थी। लेकिन महासभा के रूप में पूरे भारत वर्ष में प्रवासी और अप्रवासी राजस्थानियों का एक बड़ा कुनबा जोडऩे वाला समूह इतना कमतर कैसे हो गया उसके पदाधिकारी जिनमें एक विशेष प्रकार की क्षमता है, चेहरा है, वे इतने पदलोलुप कैसे हो गये? आखिर वे अपनी आत्मशक्ति को इतना कमजोर कैसे आंकने लगे कि यहाँ नहीं रहे तो कुछ नहीं रहेगा। ऐसी कौन-सी दीमक लग गयी जो उन्हें खोखला करती जा रही है। मैं कहना चाहूँगा उन सभी सामाजिक व्यक्तियों से एक बार फिर यह धरा (समाज) आपको पुकार रहा है, मूकदर्शक बने देखना छोड़कर एक बार फिर मशाल उठाओ, हम रास्ता बनाने वालों में है बनाये रास्तों पर चलने वालों में नहीं समाज को आपकी जरूरत है। 
''उठो जागो ऐ रणवीरों, यूँ खामोश ना रहना ठीक नहीं।
समाज की दुदर्शा पर भीरू बनकर घर मैं बैठना ठीक नहीं।''
- नितिन वत्सस, सम्पादक - 9929099018

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