भाव-विभोर



कितने भाव-विभोर होकर पढ़ाया करते थे।
मास्टरजी लक्ष्मीनारायण मथुरिया
कितनी आस्था से 
डूब जाया करते थे किताबी दृश्यों में
एक अनाम सात्विक बोझ के नीचे

दबा रहता था उनका दैनिक संताप
और मासूम इच्छाओं पर हावी रहती थीं 
एक आदमकद काली परछाई
ब्लैक-बोर्ड पर अटके रहते थे कुछ टूटे-फूटे शब्द
धुंधले पड़ते रंगों के बीच वे अक्सर याद करते थें।

एक पूरे आकार का सपना बच्चे मुंह बाए ताकते रहते 
उनके उर फुट शब्दों से बनते आकार सहम आया करते थे
गड्ढ़ों में धंसती आँखों से आँखे। 
जिनमें भरा रहता था अनुठा भावावेश

छिटक पड़तें थें अधूरे आश्वासन
और हंसते-हंसते ज्ञान कि बात कह जाते थे।
कितने भाव-विभोर होकर ज्ञान
 कि रूप रेखा का अवलोकन करते थें।
जय भास्कर...
निखिल राजेश शर्मा, जोधपुर। मो.: 9166366893

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