जम्बूद्वीप शाकद्वीप की प्राचीन सभ्यता, प्राचीन द्वीप और सूर्यापासक के प्रमाण




हमारी प्राचीन सभ्यताएं - 
हमारी प्राचीन चार सभ्यताएं हैं। पहली सुमेरियन सभ्यता और दूसरी नील नदी सभ्यता । (मिश्र की सभ्यता) तीसरी चीन की सभ्यता (ह्रांगहो और यांगटिसी क्यांग नदियों के मध्य स्थित)। चौथी भारत में स्थित सिन्धु घाटी सभ्यता जो सिन्ध जो मोहनजोदड़ो और हड़प्पा दो क्षेत्रों में स्थित है। 
  1. सुमेरियन सभ्यता- दजला फरात नामक नदियों के मध्य स्थित वर्तमान इराक देश में स्थित है। इराक एशिया महाद्वीप को देश है। 
  2. मिश्र सभ्यता- नील नदी अफ्रीका देश में स्थित है। 
  3. चीनी सभ्यता- एशिया महाद्वीप में स्थित है। 
  4. सिन्धु घाटी सभ्यता - भारत की सभ्यता एशिया महाद्वीप में स्थित है। 
मिश्र की सभ्यता को प्राचीन सभ्यता माना जाता है। यह अफ्रीका महाद्वीप में स्थित है। अन्य तीनों एशिया महाद्वीप में है। इन सभ्यताओं को नदी घाटी सभ्यता के रूप में चार नामां से जाना जाता है । 
मेसोपोटामिया-दो नदियों दजला और फरात के नाम पर। सुमेरियन-सुमेरू पर्वत क्षेत्र में बसे आर्य लोगों के निवास के कारण यह सभ्यता सुमेरियन कहलाई। सुमेरू पर्वत जहां रात नहीं होती। इस क्षेत्र को ब्रह्मलोक माना जाता है। सुमेरू पर्वत को भारतीय सभ्यता का उद्गम स्थल माना जाता है । यहां पर इन्होंने सीरीया जिसे 'सामÓ भी कहा जाता है, के नाम से नगर की स्थापना की। सुमेरियन वासी सामी-साम (समेरिक) जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए। 
असीरिया की असीरियन सभ्यता- तीसरा नाम असीरिया सभ्यता है। इसके संस्थापक दैत्य असुर लोग थे। इनका पीछा करते करते हुए सुर लोक जाकर सीरिया में बसे गये थे। यही से असुरों को सुरों द्वारा निरंतर पीछा करने के कारण यह मिश्र (अफ्रीका महाद्वीप) नील नदी के किनारे जाकर बसे। इस कारण यह क्षेत्र असीरिया (असुरों का क्षेत्र) तथा सुमेरिया सुमेरू पर्वत क्षेत्र में रहने वाले सुरों का क्षेत्र सुमेरिया और वहां की सभ्यता सुमेरियन कहलाई। 


बेबीलोनिया सभ्यता
हिरणाकश के चतुर्थ (चौथे वंशज) कश्यप सेे हिरणाकुश प्रहलाद विरोचन और बलि इन्होंने इन्द्र देव को हराकर स्वर्ग पर अपना राज्य स्थापित किया था। यह क्षेत्र कानन (इन्द्र का बगीचा) हमारे धर्म ग्रंथों में प्रसिद्ध है। राजा बलि ने उसी तरह का अपने नाम से बेबीलोन नगर बसायां। यह नगर अत्यंत रमणीक है। जहां सड़कें नहीं हैं जल है। जल के मध्य बना यह सुरम्य नगर संसार की सात आश्चर्यों में से एक है।
इस प्रकार हमारे धार्मिक ग्रंथों, इतिहास प्रसंगों, भौगोलिक (भोमीकीय) नामों, नगरों, सभ्यताओं के नामों ये यह स्पष्ट होता है कि आर्य जो भारत के मूल निवासी थे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़े और वहां उन्होंने सभ्यताओं को नये नाम दिये। सूर्य के द्वादश (बारह नामों में 12 आदित्यों में ) स्वरूपों में एक स्वरूप अर्यमा नाम का स्वरूप है। संभवत: इन्हीं के नाम से यहां के निवासियों के समूह संगठन को आर्य जाति देश और क्षेत्र को आर्यागण (आर्यों का देश) और व्यक्ति को आर्य कहा जाने लगा हो। यहां के लोग सूर्य उपासक है। 
एशिया महाद्वीप के प्रमुख नगरों को बसाने वाले आर्य थे। उनके नाम पर सीरिया जिसे कृष्ण के पुत्र साम्ब के नाम पर साम कहा जाता है। हिरात को हरिपुर व कुजनगर को कुजिस्कतान कहा जाता था। इसके संबंध में प्रमाण आगे संकलित किये गये हैं। आज एशिया महाद्वीप के सिन्ध हिन्द क्षेत्र लोद्रवा (जैसलमेर) की कला, संस्कृति, जीवन, शैली विविध धर्मों एवं यहां के आचार व्यवहार के विश्व की उच्च कोटि की सभ्यताओं के दर्शन किये जा सकते हैं। मानव-मानव के परस्पर सम्पर्क और उनके आदर्शों का स्वरूप सुरम्य नगर गोल्डन सीटी (सुनहरा नगर जैसलमेर) में देखा जा सकता है। 

सूर्योपासना के प्राचीन प्रमाण
मिश्र, चीन, दजला, फरात और भारत जहां भी प्राचीन सभ्यताओं की खोज हो रही हैं वहां से सूर्य अर्चना के अनेक ठोस प्रमाण मिलते हैं। मेसोपोटामिया में एक नगर सुमेरिया में ईसा पूर्व 2800 की एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर सूर्यनारायण एक पुरुष रूप में अंकित हैं और जिनके कंधों पर सूर्य की किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं। जो न्याय और सच्चाई का प्रतीक है। 
भारत में भी मग (मगीयन) प्रभाव की कई मिट्टी की सीलें बसरा, भिटा और राजघाट से प्राप्त हुई हैं जिसमें अग्रि सूर्य पूजा अंकित है। कई अभिलेखों से भी ज्ञात होता है कि मगीयन (मग ब्राह्मण) ज्योतिष और अग्रि पूजा के ज्ञाता थे। 

प्राचीन जल -थल मार्ग से जुड़े हमारे प्राचीन द्वीप
पंडित हरिदत जी ने जैसलमर के इतिहास में लिखा है कि समुद्री मार्ग से भाटियां राजपूतो का अफरीका आदि देशों में व्यापार होता था। भाटियों की वसापत पंजाब, सिन्ध, मारवाड़, कच्छ, हालार सौराष्ट्र, काठियावाड़, खान देश मुमई और पश्चिमोतर प्रदेश में है। यह लोग अपने अपने रहने की ही जगह ही को अपना देश जानते है और वहीं व्यवहार लेन देन तिजारत खेती जमीदारी और सरकारी नौकरियां करते हैं। भाटियो की बड़ी शाखा देश छोड़ कर परदेश में व्यापारादि कार्य वश घूमती है। 
अरबस्तान, अफ्रीका आदि प्रदेशों में समुद्रों की राह से आया जाया करते थे। समुद्र का रास्ता उस समय बड़ा भयभीत था तो भी ये लोग राजपूत होने के कारण कुछ भी भय नहीं करते थे। किन्तु जहाजों के साथ फौज और तोफ बन्दूक आदि सब प्रकार के हथियार रखते थे और एक जहाज पर 18 से 24 तक तोपे लगाते थे और सब लड़ाई का असवाय रखते थे। रास्ते में बगैर एक दो लड़ाई के नियत स्थान पर नहीं पहुंचते थे। इसी समय में बसरा, अबुशहर, मस्कत, बगदाद, अदन, शहरकला, हुडएडा, मशवह आदि अरबस्तान के बन्दरों में रहते थे। बसरे में गोविन्दराय का मंदिर बनवाया था जब यहां दुष्टाचार के उपद्रव होने लगे तो वहां से मूर्ति मस्कत में ला रखी। तीन सौ वर्ष हुए अब तक वहां रक्खी हुई है। अरब और अफरीका के सब मुल्कों की सारी बस्तियों में भाटियें लोग अब तक बस्ते हैं और हिन्दुस्तान और योरूप की चीजें अरब और अफरीका में और अरब अफरीका की चीजें हिन्दुस्तान और योरूप में तिजारत के लिये ले जाते हैं। हाथी दांत, माहीदान, कौड़ा, कोड़ी, गैंदें का चमड़ा कचकर्णां, सीप आदि का व्यवहार बड़े बड़े वैष्णव करते है और अेब नहीं समझते हैं। ब्रह्मदेश, मलाई, कोस्ता, जाबा, बतादु, आदि में भाटिये लोग माल से माल बदल कर लाते हैं और वहां बहुत होशियारी से हथियार बन्द रहते हैं। 
बज्रनाभ को अनुमान से तीन हजार वर्ष पूर्व हुए परन्तु अब तक वैदिक वैष्णव धर्म की छाप भाटियों के हदय पर जमी हुई है। अनुमान से दो सौ वर्ष से वल्लभाचार्य की संप्रदाय में जगन्नाथ जी के समय में जो आसोज सुदी 5 संवत 1883 में आने लगे हैं। 

द्विजन्मा ब्राह्मण
सूर्य पूजक शाकद्वीपी या शकद्वीप ब्राह्मण-मिस्टर कोलबुक ने इडियन क्लासेज नामक पुस्तक में लिखा है कि ''द्विजन्मा ब्राह्मण'' जाति का एक प्रधान शाकद्वीप जाति का विष्णु के गरूड़ द्वारा जम्बूद्वीप लाया गया था। इसी कारण शाकद्वीप के ब्राह्मण जम्बूद्वीप में प्रसिद्ध हुए। शकद्वीप साइथिया समझा जाता है। जिसके बारे मे ंआगे कहा जायेगा। (टाड पृष्ठ 31)
जन्मना जायते शूद्र:। संस्कारदद्विज उच्यते।
वेद पाठो भवेद्विप्र: । ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:।।
    ''By birth all are Shudra,by action man becomes Dvija {twice-born}. By reading the vedas one becomes vipra and becomes Brahman by gaining a knowledge of God''

जन्म से सारे शुद्र होते हैं। संस्कारों से द्विज दुबारा जन्म लेता है। वेद पाठ पढने से वह विप्र कहलाता है तथा ब्राह्म का ज्ञान प्राप्त करने से ही वह ब्राह्मण कहलाता है।  
शाकदेश के निवासी शाकद्वीपीय सूर्य उपासक सूर्य द्विज मग ब्राह्मण तथा भोजक भोज कन्याओ से जम्बद्वीप में विवाह करने से भोजक और पंचायत मंदिरों की सेवा करने से सेवग या पुजारी सेवग के नाम से जाने जाते हैं। इसमें 18 कुलों के मग ब्राह्मण सम्पूर्ण भारत में फेले हुए हैं और पूजा उपासन के कर्म से जुड़े हैं। सूयवंशियों ओर चन्द्रवंशियों के ऐशिया और यूरोप में कई नगरों के ये ही पुजारी थे। इन नगरों में सूर्य और विष्णु (कृष्ण) के मन्दिरों की पूजा के साथ साक्ष्य इतिहास में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिनके साक्ष्य संग्रह किये गये है जो इस प्रकार है। 
- नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर।

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