शाकद्वीपीय ब्राह्मण का भारत में आने के बाद, लगानी छोड़ी नाम के साथ शाकद्वीपीय की उपाधि


    कौशाम्बी से प्राप्त सिक्को से ज्ञात होता है कि यहां 'मग' शासकों का राज्य था, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। कौशाम्बी तथा रीवा से कई लेख भी उपलब्ध हुए हैं। इनमें कुछ शक संवत् में तिथियुक्त लेख है। कौशाम्बी में 81 शक संवत् अंकित मिले हैं। मग राज्य का शासन ई. दूसरी से चौथी सदियों तक स्थिर किया गया है। 

शाकद्वीपीय ब्राह्मण का भारत में आना
    (पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा आरा) हमने जहां तक अनुशधान किया हैं, उसमें हमें मालूम हुआ है कि शाकद्वीपीय ब्राह्मण बहुत ही प्राचीन काल से भारत में आकर बस गये थे। उनका भारत आगमन एक बार ही नहीं, अनेक बार हुआ है। सर्वप्रथम उस समय आये थे, जबकि भानु के पुत्र इक्ष्वाकु राजा अपना प्राचीन निवास स्थान छोड़ कर अयोध्या में आ बसे थे। इक्ष्वाकु शाकद्वीपीय क्षत्रिय थे। शाकद्वीपीय ही आज तक अपने को शाकद्वीपीय कहते हैं। अन्य वर्णों के लोग अपना निवास भूल गए और अपने नाम के साथ शाकद्वीपीय उपाधि लगानी छोड़ दी। इसलिए लोगों का यह भ्रम होता है कि ये शाकद्वीपीय पिछले दिनों आये हुए शक और हूणों के संबंधी हैं, परन्तु यह समझना भूल है। शाकद्वीपीय ब्राह्मण विद्वान थे। इसलिये उन्हें अपना आदि निवास सदा याद रहा। अन्य वर्णों में ज्यों-ज्यों विद्या का हास होता गया, त्यों त्यों वे अपनो निज रूप भूलते गए। संसार भर के विद्वान इस बात को मानते है कि हिन्दुस्तान में आर्यगण अत्यंत प्राचीनकाल में मनुष्य जाति के प्रथम विकास के समय बाहर से ही आकर भारत में बस गए थे। (पृष्ठ संख्या 123 शाकद्वीपीय ब्राह्मण इतिहास शंकरलाल कुबेरा, ई. 1968 मेड़ता सीटी) 
प्राचीन स्त्रोतों में अनुवाद करते हुए फरिस्ता ने भी कहा है कि महाराज कन्नौज के शासन काल में एक ब्राह्मण फारस से आया जिसने यहां के लोगों को जादू मूर्ति पूजा और ग्रहों की पूजा करना सिखाया। सौराष्ट्र के कमारी या सौर जाति के लोग अपने आपको विष्णु के पक्षि देवता से उत्पन मानते हैं। जिन्होंने सीता को ढूंढने में राम की सहायता की थी। वे स्वयं को मकर के वंशज भी मानते हैं तथा अपना मूल स्थान सक्रोपा वेवर या सक्रोपा दीप को मानते हैं। अरब की खाड़ी में घुसते ही डिस्कोडारस नामक प्रदेश है। यह प्रदेश शायद उसी नाम को प्रदर्शित करता है। 

कच्छ की खाड़ी में लघु द्विप के सम्मान यह भी साइनस फेरिविक्रम का द्वार है। यहां शंख खूब मिलते हैं। यहां के निवासी अपनी उत्पति राम के निवास से मानते है। कहते हैं कि उनकी इथोपियन माता यहां लाई थी। जहां वे आज भी रहते हैं। यह कथा विचित्र हैं। मगर इस कल्पना से विदेशी लेखकों को बल मिलता है। बेटद्वीप का प्राचीन नामा शंखद्वारा है। क्योंकि यहां लोगशंख इकठा करते हैं। सोक्रोटा सुखकर द्विप यानी आनंद का द्विप (मूल मोर्कोपो तो प्रथम संस्करण।। 342 (टाड संदर्भ संकेत पृष्ठ 97-98) 

भाटी और शाही वंश
ईस्वी की प्रथम शताब्दी से पांचवी तक भाटी लोग काबुल और कंधार पर अस्थायी रूप से कब्जा जमाय रहे परन्तु महाराज तृतीय गजसिंह के कंधार में मारे जाने पर उनके पुत्र पंजाब में भाग आये और महाराज गज के पुत्र लोमन राव ने लाहौर पर कब्जा किया परन्तु ईस्वी सन् की नवमी शताब्दी के अन्तिम समय तक बौद्ध मतानुयायी शाही राजाओं की अधीनता में इनका कंधार पर का आधिपत्य अक्षुण्ण बना रहा। इस विषय में संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी इतिहास लेखकों के प्रमाण नीचे संग्रहित किये जाते हैं।
(देखिये history of persia vol 1 pio) जै.का ई. पंडित हरिदत व्यास) 
 
शाही वंश की उत्पति 
उपरोक्त विवरण से मालूम होता है कि बौद्ध धमानुयायी कनिष्क की सन्तान की पलटकर उसके प्रधान युद्ध सचिव लालिया ने काबुल का राज्य हस्तगत किया। इसी लालिया को समकालीनता में भाटी वंश कंधार का शासन करता था। परन्तु नवमी शताब्दी में जब शाही खानदान (ब्राह्मणों) का राज्य याकूब विन लेस तुर्क जेनरल से उखाड़ा गया तब इसीशाही खानदान और भटी वंश ने पंजाब में हट कर अपना राज्य स्थापित किया।
- नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर। मो.: 9413865665

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