पढ़े प्राचीन काल गणना के इतिहास में शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों के साक्ष्य


डी.आर. दिनेश चन्द्रा कथा की बारे में लिखते है, जैन पारम्पारिक इतिहास अनुसार कालकाचार्य कथानक के संदर्भ के हवाले सें लिखते हैं कि शकों का मालवा में प्रवेश सिन्ध के रास्ते शिस्तान वाया सिन्ध काठीयावाड़ से उपरान्त के Gardabhila  समय हुआ था और वहां पर शकों का ठहराव चार वर्ष का रहा। उसके बाद उसके पुत्र विक्रमादित्य ने उसको वहां से खदेड़ दिया। विक्रमादित्य गरवाभीला का पुत्र था। यह वह विक्रमादित्य था जिसने प्रसिद्ध विक्रम संवत (क्रीता मालवा) 57 बी.सी पूर्व सतावन ईसा पूर्व स्थापित किया था। (Early History of Rajasthan by D.R Dinesh Chandara 1978  P.P 48)

आपने लिखा है कि विक्रमादित्य कई अनेक कहानियां एक सी मिलती है। उनके कथानकों और प्रस्तुतियों में भिन्नता है। यह एक पारम्पारिक कथा है जो समय पर उसमें बदलाव भी आया है। हमें तो यह देखना है कि विक्रमादित्य कौन था कब हुआ? क्योंकि गुप्त काल के सभी शासक विक्रमादित्य उपाधि ग्रहण करते थे। सभी विक्रमादित्य कथा के साथ उसको जोड़ते हैं। लेकिन मैं मेरे द्वारा जैसलमेर तथा राजपूताना (राजस्थान) से इकठे किये कि अभिलेखों के आधार पर यह कहते हैं विक्रमादित्य एक उपाधि है। जिसको वहां की प्रजा ने समाज और राजहित में की गये कार्यों और विजय श्री के उपलक्ष्य विक्रमादित्य की उपाधी दी जाने की परम्परा रही होगी। क्योंकि शकों पर 78 ए.डी. में विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में शालीवाहन को 'शाकारी' की उपाधी के साथ श्री 'मंगल' शब्द श्री से सम्मानित किया गया था। विक्रम की तरह शालीवाहन भी अलग अलग हुवे हैं। कोई इतिहासकार शालीवाहन भी शालीवाहन को पेठन आंध्र का मानता है। तो कोई पंजाब के स्यालकोट का तो कोई कनिष्क को तो शालीवाहन मानता हैं। विक्रम संवत को प्रारम्भ करने का श्रेय भी तंवर राजा को दिया जाता है। इस कारण हम यह कह सकते हैं कि विक्रम संवत और शालीवाहन संवत अलग-अलग समय में शासकों ने चालू किये थे इसी कारण ईसवी और हिजरी सन के छठी शताब्दी में चालू होने के पूर्व संवतों की कालगणना में समानता नहीं है। अभिलेखों लेखन सम्बोधन राजा के नाम और उपाधी मे भी भिन्नता है। 

लौकिका संवत्सरा 
(1031 ई.) अलबेरूनी ने लिखा है कि इस काल में हर्ष संवत, विक्रम संवत, शाका संवत, वभभी संवत, गुप्त संवत के अलावा लौकिका संवत प्रचलित था। यह Centennion वर्ष के रूप में प्रचलित था। यह राजा और प्रजा की भावना पर आघारित था। जब तक प्रजा और राजा के बीच भावात्मक सम्बन्ध बना रहता था वह चलता वरना समाप्त हो जाता था। इन्हें संवतसरा (संवत्सरा) कहा जाता था। इस कालगणना को लोक कालगणना या लौकिका संवत् कहते थे। 

लौकिक संवत् 
जैसलमेर के तवारिखों, ख्यातों, बहियों पट्टों-परवानों में लिखे गये संवत् न तो विक्रम संवत् है और न ही शाका संवत् है। ये लौकिक संवत् है, 'लोककाला संवतसरा' भी कहा जाता है। भाटिका संवत लोककाला लौकिका संवत का परिष्कृत संवत् हैं। जैसलमेर क्षेत्र से प्राप्त अब तक 452 से 501 भाटिका संवत् (1075 से 1124 ई.) तक के अभिलेख मिले हैं। उनमें मात्र तीन अभिलेख वि.स. के हैं। इन अभिलेखो की भाषा कुटिल सिद्धमात्रिका है। अपने विभिन्न क्षेत्रों के 36 अभिलेखों में मात्र 20 संवतों में संवत् शब्द लिखा है। इनमें विक्रम या शाका संवत् का उल्लेख नहीं हैं। इनकी जाँच कने पर ज्ञात हुआ कि इसमे 14 अभिलेख शाका संवतों के हैं। 

शक, विक्रम में ईस्वी सन् का अन्तर 
जैसलमेर में जैसलमेर नगर से 17 कि.मी. उतर में नेड़ाई के मार्ग पर ब्रह्मकुण्ड के पास बैशाखी तीर्थ है। इसके पास स्थित प्राचीन स्ताम्भ पर एक अभिलेख लिखा है। ''संवत् 101 साका 947 वैशाख मासे शुक्लपक्षे सप्तयाम् 7 तिथौ बुधवारे पुष्यान नक्षत्रे।'' मिस्टर एन्थोनी ने लिखा है कि ज्योतिष के आधिकारिक विद्वानों द्वारा इन संवतों की जाँच किये जाने पर ई. सन् के अनुसार तिथि, वार, नक्षत्र आदि सही नहीं पाये गये। अत: यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि जैसलमेर की ख्यातों, तवारिखों आदि में जो सवत् लिखे गये हैं वे लौकिक संवत् हैं। मिस्टर एन्थोनी के अनुसार 947 शाका$ 78 शाका ईस्वी का अन्तर को जोडऩे पर =1025 आता है। 1025 ई. को उपर्यक्त तिथि, वार नक्षत्र आदि सही नहीं मिलते हैं। जब 1025 ई मे से 100 घटाने पर 925 ई. मे यह ज्योतिष पंचाग सही मिल जाता है। इससे यह प्रमाणित हो गया है कि शक और ईस्वी का 100 वर्ष का अन्तर हैं। मैने अपनी पुस्तक त्रिकुटगढ़ में 22 वर्षों का अन्तर होने का संकेत् दिया था। अब यह प्रमाणित हो गया है कि जैसलमेर राज्य मे महारावल जैतसिंह 1585 से पूर्व लौकिक संवत् तथा बाद में विक्रम एवं शाका संवतों के एक साथ लिखने का प्रचलन हुआ जिसमें विक्रम एवं शाका संवतों में 135 वर्षों का अन्तर हैं। इन सवतों का प्रचलन मार्गषीर्ष, कार्तिक तो कहीं आषाढ़ तथा कहीं चैत्र सुदी या बदी 1 से प्रारम्भ होने के प्रमाण मिलते हैं। लौकिक संवत् जैसलमेर में मिगसर बदी 1 से प्रारम्भ होते हैं। अलबेरूनी ने अंरबिक भाषा में लिखी पुस्तक में उस काल में प्रचलित संवतों का उल्लेख किया है। उसमें गुप्त, हर्ष, विक्रम, शक आदि संवत मुख्य हैं। जो साधारण जनता का संवत् था वह लौकिक संवत् था। यह संवत् भावना पर आधारित था। जब तक किसी देश के राजा के प्रति वहां की जनता में श्रद्धाभाव रहता था, वह संवत् चलता था। उसके समाप्त होते ही नया सवत् चालू हो जाता था। ये संवत् संवत्सरा कहलाते थे। अलबेरूनी ने लिखा है कि यह संवत् अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग महीनों तथा पक्षों में प्रचलित होते थे। जैसलमेर एवं सिन्ध की तरह लौकिक संवत् का प्रचलन काश्मीर में भी था। जैसलमेर और काश्मीर दोनों लौकिक संवतों का प्रारम्भिक वर्ष 624 (623-24) ई. है, लेकिन काश्मीर में यह चैत्र सुदी एकम से तथा जैसलमेर मे यह मिगसर बदी 1 से प्रारम्भ होता है। जैसलमेर में भाटिका संवत् का प्रचलन मिगसर सुदी 1 से तथा लौकिका संवत् का मिगसर बदी 1 से होता है। जैसलमेर क्षेत्र में प्रचलित भट्टी या भाटिका संवत् लौकिक संवत् का नाम परिवर्तित आधुनिक रूप है। जैसलमेर के सेलत गांव के 503 भाटीके संवत् व सोनू गांव के 555 भाटीके, संवत् के अभिलेखों में भाटी एव लौकिक दोनों प्रचलित संवतों का उल्लेख हुआ है। पहला फाल्गुन वदी 4 गुरुवार को है तथा दूसरा माघ सुदी 11 रविवार का है। (अंनथोनी ओवरान 1996 पृ.22) 

नवसारिका (नया वर्ष) 
नवसारिका वर्ष संभवत: पर्सिया में मिगसर माह से प्रचलित था। पर्सिया का वर्तमान नाम ईरान है। इसे शाकद्वीप भी कहा जाता है। शाकद्वीपी ब्राह्मण ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका मालवा, उज्जैन, मुल्तान, सिन्ध, पंजाब तथा जैसलमेर में वर्चस्व था। ये सूर्य के उपासक थे। वैष्णव धर्म के अनुसार विष्णु के अलग-अलग नाम हैं जो अलग-अलग महीनों के रूप में जाने जाते हैं। वैष्णव धर्मावलम्बियों के वर्ष का प्रारम्भ मिगसर माह से होता  है।  मिगसर माह में विष्णु केशव कहलाते है तथा सूर्य उपासक इसे मित्रा विश्वबन्धु कहते हैं। पर्सिया में भी नया साल इसी माह से प्रारंभ होता है। जैसलमेर में भी नया साल दीपावली के बाद मिगसर बदी या कही मिगसर सुदी से प्रारंभ होता है। कहीं-कहीं चैत्र सुदी से भी यह नया साल प्रारम्भ होता है। सेवग लक्ष्मीचंदजी ने लिखा है कि जैसलमेर में यह संवत् जुदा-जुदा हलकों या परगनों में अलग-अलग हैं। परगने विक्रमपुर में मारवाड़ ( बीकानेर) मुजब आषाढ़ सुदी से नया वर्ष लगता है। संवत् 1904 में इसे मिगसर से शुरू कराया गया मगर आषाढ़ वाजिब है। नई वरस एवं नई फसल इसी वर्ष में हो जावे। (सेवग लक्ष्मीचंदजी)
इस प्रकार हम देखते हैं कि ये लोक प्रचलित संवत् देशकाल, परिस्थिति, स्थानीय आवश्यकताओं एवं राजकीय आदेशों के द्वारा परिवर्तित होते रहते थे। 

शाका संवत् 
वैशाखी के अभिलेखानुसार यह अभिलेख संवत् 101 शाका 947 सप्तयाम तिथी 7 वैशाख मास शुक्ल पक्ष का है। इस दिन पुष्य नक्षत्र बुधवार था। मिस्टर एन्थोनी के अनुसार 947 शाका व ई. का अन्तर जोडऩे पर 1025 ई. होता है। मगर इस दिन तिथि वार नक्षत्र आदि नहीं मिलते हैं। इसमें 100 घटाने पर यह तिथि बार आदि 925 ई. मिल जाते हैं। 
मिस्टर एन्थोनी के अनुसार यह संवत् एक चक्र अर्थात्। Cyclic Centennil Datting System के रूप में चलता है। इसका प्रारंम्भिक वर्ष 24-25 ई. (शताब्दी) चैत्रादि (चैत्र माह से) हो तो यह Current होगा और 23/24 ई. हो तो इसकी शुरूआत मिगसर बदी 1 एकम अथवा यह माह पूर्णिमा से शुरू होगा।
 
सप्तऋषि देववर्ष 
सप्तऋषि मण्डल 100 वर्षों में 27 नक्षत्रों में भ्रमण करते हुए अपना एक वर्ष (चक्र) पूर्ण करता है। यह चक्र एक युग (संवत) सप्तऋषि देववर्ष के रूप में माना जाता है। यह देव वर्ष 6 देव माया एवं 6 देव वर्षों में पूर्ण करते हैं। ये देव वर्ष सप्तऋषियों एवं 27 नक्षत्रों पर आधारित होते हैं। जब दो तारे उतरी क्षेत्र में सप्तऋषि के समय दिखाई दें। जब उतरी क्षेत्र के सप्तऋषियों के मध्य दिखाई दे तो वे इस समय 100 वर्ष पूर्ण कर देते हैं। सप्तऋषि ए नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र में 100 वर्ष के बाद प्रवेश करते हैं। 
(लेख में वणित विचार पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित है, इन्हें लेखक द्वारा अपनी भाषा में प्रस्तुत किया गया है।) 
- नन्दकिशोर शर्मा (मरु सांस्कृतिक केन्द्र), जैसलमेर। मो.: 9413865665


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