जानिए लोगों से प्रश्न पूछे जाने पर अन्यमत और क्यों?




भाई बन्धु/इस इस प्रकार सनातन धर्म दावा दलील और मिसाल तीनों प्रकार के शास्त्रों से संपन्न होने के कारणसर्वाङ्गपूर्ण है परंतु ईसाई मुसलमान आर्य समाजी आदि सभी मतों में केवल दवा मात्र है किसी अंश में यथाकथञ्वित मिसाल भी मिल जाती है परंतु दलील का सर्वथा अभाव है। यदि हम किसी मुसलमान से पूछे कि वह दाढ़ी रखता हुआ मूछों को क्यों कटा डालता है? और खुदा कोनिर्विशेष रूप से सर्वत्र मानता हुआ भी केवल काबे की ओर मुख करके ही निमाज क्यों पढ़ता है? तो वह कुछ भी हेतु=दलील देने में असमर्थ होने के कारण बिगड़ कर यही कहेगा कि 'तू काफिर है, जो मजहब में 'क्यों' का अडंगा लगाता है।' इसी भांति किसी ईसाई से पछिये, कि आपका पादरी कमर में रस्सा क्यों बन्धता है? और और गले कि लकड़ी का बना क्रास चिह्न क्यों लटकाता है? तो वे भी यही कहेंगे- हमारे धर्मग्रन्थ अंजील और तौरेत में ऐसा करना लिखा है। पुनश्च पूछा जाए कि ऐसा क्यों लिखा है? तो बेबी पूछने वालों को 'काफिर' कहने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते।
भारतीय सम्प्रदायों में आर्य समाज भी एक ऐसा मत है कि जो कहने को तो बड़ा तार्किक बनता है और व अपना जन्म ही शिवलिंग पर चढ़े चूहे को देखकर-'जब यह प्रतिमा अपने ऊपर चढ़े चूहे को भी नहीं हटा सकती तो यह हमारी रक्षा कैसे कर सकेगी'-इस तर्क या कुतर्क के आधार पर मानता है। अन्याय सभी सम्प्रदायों की धार्मिक क्रियाओं का उपहास उड़ाने में भी अपने तर्क तोमर की तीव्र धार का बड़ी बेरहमी से प्रहार करता है, परन्तु स्वयं इतना दकियानूस और 'दादा वाक्यं प्रमाणम्' की दल दल में आकण्ठ मग्न है कि अनेक सर्वथा मिथ्या और कपोल-कल्पित बातों को भी केवल इसलिये हठात् पकड़े बैठा है कि वे बातें दयानंदी टकसांल के सांचे में ढली है। उदाहरणार्थ-
समाजियों से पूछिये कि हवन क्यों करते हो? तपाक से उत्तर देंगे-वायु युद्ध करने के लिये। पुन: प्रश्न कीजिये कि वायु शुद्धि तो अग्नि में यथा तथा सुगंधित द्रव्य डालने मात्र से हो सकती है। फिर आप साथ-साथ मंत्र क्यों बोलते है? उत्तर मिलेगा कि इस बहाने से वेद मंत्र भी कण्ठस्थ हो जायेंगे। पुनश्च पूछिये कि यदि मंत्र कण्ठस्थ करने मात्र से ही अभिप्राय में बोले जाते है- तो अकल का तकाजा है कि कि अमुक-अमुक मंत्र कण्ठस्थ हो जायें तो पुन: नये-नये मंत्र बोलने चाहिए। परन्तु तुम तोअन्यून एक शताब्दी से वहीं स्वा. दयानन्द संगृहित 'हवन मंत्रा:' नामक साढ़े सात मंत्रों के ट्रेक्ट को रटते हो-सौ वर्ष में भी यदि ये साढ़े सात मंत्र कण्ठस्थ न हो पाये, तो इस सुस्त रफ्तार और इतनी कुन्द जहनियत से एक लक्ष मंत्र वाले वेदों का पूरा पारायण तुमसे सहस्र जन्मों में भी नहीं हो सकेगा। बस, यह सुनते ही दयानंदियों की दलीलों का दिवाला निकल जायेगा और शास्त्रार्थ को शस्त्रार्थ बनाने के प्रयत्न में तत्पर हो जाएंगे।

वास्तव में इन सभी पंथों के पास 'क्यों'? बताने के साधन-भूत ग्रंथ ही नहीं है। आर्यसमाज भी यदि किसी एक भी दर्शन को मान ले तो उसकी रेत की दीवार तत्काल धम्म से गिर जाये। सभी दर्शनों में मूर्तिपूजा, इश्वर का अवतार, मृतश्राद्ध, जन्मना वर्ण व्यवस्था, तीर्थ और स्वर्शास्पर्श आदि वैदिक विषय ओतप्रोत हैं। अत: वह 'केवल वेदानुकूल और प्रक्षेप रहित अंश हमें मान्य है' इस बहाने से उन्हें न सर्वांश में मान सकता है न छोड़ सकता है- 'भई गति साँप छछुन्दर केरी'।
अस्तु, अन्य मत वाले 'क्यों' से बहुत घबराते हैं। 'क्यों' पूछा कि प्रश्नकत्र्ता को 'काफिर' की उपाधि मिली। वस्तुत: ये सब सम्प्रदाय 'क्यों' का उत्तर देने में विवश हैं! लाचार हैं!!
- अश्विनी कुमान शर्मा, बीकानेर। मो.:9460270375



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