जानिए क्या है? भगवान सूर्यदेव का आविर्भाव





      भाई बन्धु/सप्तमी तिथि को भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ। वे अण्ड के साथ उत्पन्न हुए थे और अण्ड में रहते ही उन्होंने बुद्धि प्राप्त की। बहुत दिनों से ये अण्ड में रहने के कारण 'मार्तण्ड' के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब ये अण्ड में ही स्थित थे तो दक्ष प्रजापति अपनी रूपवती कन्या रूपा को भार्या के रूप में इन्हें अर्पित किया। (सूर्य की पत्नी रूपा का दूसरा नाम संज्ञा है) अन्य पुराणों में संज्ञा को विश्वकर्मा की पुत्री कहा गया है। दक्ष की आज्ञा से विश्वकर्मा ने इनके शरीर का संस्कार किया जिससे ये अतिशय तेजस्वी हो गये। अण्ड में रहते ही इन्हें यमुना एवं यम नामकी दो संतानें प्राप्त हुई। संज्ञा कई दिनों तक इनके साथ रही। मगर भगवान सूर्य का तेज न सह सकने के कारण वह व्याकुल हो गई। अतिशय तेज के कारण रूपा (संज्ञा) का सुवर्ण-वर्ण, कमनीय शरीर दग्ध होकर श्यामवर्ण का हो गया। एक दिन उसने अपनी छाया से एक स्त्री उत्पन्न कर उससे कहा, ''तुम भगवान सूर्य के समीप मेरी जगह रहना, परन्तु यह भेद खुलने न पाए।'' अपनी संतान और यम को छाया के पास छोड़कर वह उतरकुरू क्षेत्र में तपस्या करने के लिए चली गई। वहां वह घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या में रत इधर-उधर कई वर्षों तक घूमती रही। 
       भगवान सूर्य ने छाया को अपनी स्त्री समझा। कुछ समय बाद छाया से शनिश्चर एवं तपती नामक संतानें हुई। छाया अपनी संतान पर यमुना और यम से अधिक स्नेह करती थी। एक दिन यमुना एवं तपती में विवाद हुआ। पारस्पारिक शाप से दोनों नदी हो गई। एक बार छाया ने यमुना के भाई यम को प्रताडि़त किया। इस पर कुद्ध होकर यम ने छाया को मारने के लिए पैर उठाया। छाया ने कुद्ध होकर शाप दे दिया। 'मूढ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है। इसलिए तुम्हारा प्राणियों का प्राणहिंसक रूपी यह वीभत्स कर्म तब तक रहेगा जब तक सूर्य-चन्द्रमा रहेंगे। यदि तुम मेरे श्राप से कलुशित इस पैर को जमीन पर रखोगे तो कृमिगण इसे खा जाएंगे। 

       यम और छाया के विवाद के समय सूर्य भगवान वहां पहुंचे। यम ने कहा-पिताजी! यह हमारी माता कदापि नहीं हो सकती। यह हमें नित्य क्रुरू भाव से देखती है। हम भाई-बहिनों पर समान भाव नहीं रखती है। पिताजी यह मेरी माता नहीं, उनकी छाया हैं। इसने मुझे श्राप दिया। यह कहकर यम ने पूरा वृतान्त सुनाया। इस पर भगवान ने कहा-बेटा! तुम चिन्ता मत करो। कृमिगण तुम्हारा रूधिर और मांस लेकर भू-लोक चले जाऐंगे। इससे तुम्हारा पांव गलेगा नहीं, अच्छा हो जाएगा। ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल पद को प्राप्त होओगे। तुम्हारी बहिन यमुना का जल गंगा के समान पवित्र हो जाएगा और तपती का जल भी नर्मदा के तुल्य पवित्र माना जाएगा। ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान दक्ष प्रजापति के पास गये तथा सारा वृतान्त कहा। इस पर दक्ष प्रजापति ने कहा- ''आपके अति प्रचण्ड तेज से व्याकुल होकर भार्या उतरकुरू देष चली गई है। अब आप विष्वकर्मा को कहकर अपना रूप प्रषस्त करावें।'' भगवान सूर्य ने विश्वकर्मा को बुलाकर अपने शरीर को तराशने को कहा। विश्वकर्मा ने भगवान सूर्य को तराशना प्रारम्भ किया इस समय उनको बड़ी पीड़ा हो रही थी। विश्वकर्मा ने सब अंग ठीक कर लिये पर पैरों की अंगुलियों को छोड़ दिया। भगवान सूर्य ने कहा कि आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया। परन्तु हम पीड़ा से व्याकुल हो रहे हैं। इसका कोई उपाय बताआं। विश्वकर्मा ने कहा -''भगवन! आप रक्त चन्दन और करवीर के पुष्पों का सम्पूर्ण रस शरीर पर लेपन करें, इससे तत्काल यह वेदना शांत हो जाएगी। भगवान ने उसका लेप किया। उनकी वेदना तुरन्त शान्त हो गई। उस दिन से रक्त, चंदन तथा करील के पुष्प भगवान सूर्य को प्रिय हो गए और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने लगे। भगवान सूर्य के शरीर को तराशने से जो तेज निकला, उस तेज से दैत्यों के विनाश करने वाले वज्र का निर्माण हुआ। भगवान ने भी अपना उतम रूप धारण कर प्रसन्न मन से अपनी भार्या (रूपा) संज्ञा के पास उतरकुरू गये, जहां पर वह घोड़ी का रूप धारण कर विचरण कर रही थी। भगवान सूर्य भी अष्व का रूप धारण कर उससे मिले। 
       परपुरूष की आशंका से उसने अपने दोनों नासापुटों (नाकफनों) से सूर्य को बाहर फेंक दिया जिससे अश्विनी कुमारों की उत्पति हुई और यही देवताओं के वैद्य हुए। तेज के अंतिम अंश से रंवन्त की उत्पति हुई। तपति शनि और सावर्णि ये तीन संताने छाया से और यमुना तथा यम संज्ञा से उत्पन्न हुई। 
       सूर्य को अपनी भार्या उतरकुरू में सप्तमी तिथि को, दिव्य रूप भी सप्तमी तिथि को तथा संताने भी इसी तिथि को प्राप्त हुई इस कारण भगवान सूर्य को सप्तमी तिथि अतिप्रिय है। जो व्यक्ति पंचमी तिथि को एक समय भोजन कर षष्ठी को उपवास करता है तथा सप्तमी के दिन उपवास कर भक्ष्य भोज्यों के साथ शाक पदार्थो को भगवान को अर्पण कर ब्राह्मणों को देता है तथा रात्रि में मौन रहकर भोजन करता है वह अनेक प्रकार के सुखों का भोग करता है तथा सर्वत्र विजय प्राप्त करता है। 

       पुराणों का शाकद्वीप कहा है ? - शाकद्वीप ब्राह्मण इतिहास खण्ड पांच अध्याय छ: शा.ब्राह्मण विषयक अन्य लेख मगदर्पण में पण्डित श्री हुकमसिंह जी महाराज, लौणार खानदेश ने भविष्य पुराण ब्राह्मण पर्व अ. 117 श्लोक 11-35 संदर्भ में लिखा है कि शाकद्वीप कहा है ? शाकद्वीप के बारे में पारम्पारिक पुराणों के संदर्भ देकर लिखा है कि मद मागवत के पांचवे स्कंध अ.नव  में सूर्य और प्रियव्रत की कथा का वर्णन है। प्रियव्रत ने सूर्य के समान सूर्य के साथ ही सात बार सूर्य की परिक्रमा की।।   ।। ब्रहा्राजी के कहने पर प्रियव्रत ने  आठवी परिक्रमा नहीं की। विचार बदल गया। उन  परिक्रमा से सात  लकीरें पहिये बन गए। वे ही सातों सागर हो गए। इन सागरों के बीच पृथ्वी से 7 द्वीप बन गए। समुद्र के बाद एक  द्वीप है। द्वीप के बाद एक समुद्र है।। 30  ।। प्रियव्रत ने अपने सातों पुत्रों को 1-1 द्वीप का राजा बनाया।। 31 ।।  स्कंध अध्याय  2 केवल जंबू द्वीप के 9 खंड है। शेष में 7-7 खंड और पुष्कर द्वीप के दो खंड है। 
       जिस पृथ्वी खंड को चारो ओर समुद्र घिरे हुए है उनका नाम ''भद्राश्रव'' है। जो आजकल का ''अफ्रीका'' है। जो भाग सुमेररू पर्वत के निकट है वह इलावृत खंड है। अर्थात ''किंपुरूष'' अमेरिका। मध्य स्थल को मेरू कहते हैं। केतुमाल (यूरोप) भारत व उतर कुरू प्रदेश है। पहले भारत को ''एक वर्ष'' रूसतातारई को उतर कुरू प्रदेश एवं ब्रह्मा, चीन आदि को ''किरात'' देश कहते थे। शाकद्वीप तो भागवत मेें जम्बूद्वीप छट्टा माना गया है। नारदीय पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण में छट्टा माना गया है। महाभारत, पदम पुराण, स्कंध पुराण, मत्स्य पुराण, साम्ब पुराण में दूसरा माना गया है। इन पुराणों में द्वीपों, समुद्रों, राजाओं के नाम मतभेद हैं। साम्ब पुराण में ''प्लक्ष'' का नाम नहीं। गोमेध नाम आया है। भविष्य पुराण ब्राह्मण पर्व अ. 131  में शाकद्वीप छ्टटा माना गया है। अर्थात लवण समुद्र के पार क्षीर समुद्र से घिरा हुआ जंबूद्वीप से अलग शाकद्वीप का वर्णन है ंपर्वतों के नाम भी उल्लेखित हैं।। एवम नदियों के भी नाम हैं। यह प्रमाणित है कि जम्बूद्वीप से दूसरा ही शाकद्वीप है। क्षीर समुद्र इसे घेरे हुए हैं। लवण समुद्र से दूसरा क्षीर (दूध) के समान श्वेत बर्फ होने से इसे क्षीर समुद्र मानना कोई हरकत नहीं। क्षीर समुद्र के पार बर्फ समुद्र से घिरा हुआ शाकद्वीप है। इसे धु्रव प्रदेश भी कहते हैं। जो आर्यो का मुख्य स्थान है। 
       प्राचीन सभी आर्यो का निकास इसी दिव्य देश शाकद्वीप से ही हुआ है। जो वेद विद्या के जानने वाले महर्षियों का जन्म स्थान और वर्ण व्यवस्था का मुख्य स्थान है । सभवत: इसी स्थान को आर्यारण कहते थे। 
       शाकद्वीप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों की अवधारणा - हमारे पूर्वज इतिहासकार, लेखक, कवि, पुराणवेता, ऋ षि-मुनी, धर्म, कला, इतिहास, संस्कृति, भौगोलिक एवं राजनैतिक संदर्भो, यात्रा-वृतांतों और व्यापारिक मार्गो से चलकर अपने-अपने प्रमाणों और कल्पनाओं के आधार पर विभिन्न स्थानों में शाकद्वीपीय स्थित होने का अनुमान लगाते हैं। हमारे देश में ही नहीं सारे विश्व का प्राकृतिक भागौलिक परिवर्तन समय-समय पर होते रहे हैं। इस कारण देशों में कई राजवंश नष्ट हुये तथा कई नये राजवंशों का उदय हुआ। इस कारण स्थान, नगर, देश, राज्यों, द्वीपों के नाम भी बदलते रहते है। हमारे देश भारत का नाम आर्यवत फिर भारतवर्ष इन्दुस्तान इण्डिया फिर हिन्दुस्तान कहलाया है। आज प्राचीन नामों से लोग उन क्षेत्रों को नहीं जानते हैं। प्राचीन काल में भद्राश्रव जो आज का अफ्रीका है उसे अफ्रीका नाम से जानते हैं। इलावृत (इलाम) द्वीपों में बने छोटे-छोटे देष इरान ईराक देशों के नाम से लोग जानते है, इलावृत को भूल गये हैं। इन क्षेत्रों में नये धर्म और नये विचारों से नयी संस्कृतियों का विकास हुआ। जो अलग-अलग नामों से प्रसिद्ध हुई। पारसियों की संस्कृति पारसी या फारसी कहलाती है। उसी देश को खुराषान देश भी कहते हैं। रूसतातारी देश विशाल सोवियत देश नामकरण होने से पहले एक तातारी देश था। तातारी मंगोल आदि आर्य जातियां हैं और उनका सम्बन्ध जैसलमेर के चन्द्रवंशी, इन्दुवंशी यादवों के साथ जुड़ा है। इसके सम्बन्ध में उचित स्थानों में चर्चा की है। प्रमाण दिये हैं तथा अपना अनुमान व कल्पना का सहारा भी लिया है। कुजिकस्तान कुंजनगर जो कृष्ण के नाम कुंज बिहारी से सम्बन्ध रखता है । हरिपुर भगवान सूर्य के नाम से सम्बन्ध रखता है । इसी तरह सीरीया इथोपीया इजिप्ट मिश्र आदि देशों का सम्बन्ध सूर्य से रहा है। यहुदी यूची जादुन (पठान) आदि का सम्बन्ध चन्द्रवंशियों के निवासियों से हैं। यहां की भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धर्म, मंदिर, देवस्थानों से सम्बन्ध रखने वाले अनेक साक्ष्य आज भी इन क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। इसलिये हमारे बन्धुओं को यह जानकारी देना चाहते हैं कि हमारे सात द्वीप और सात संमुद्र थे। उस क्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में शाकद्वीप विशाल द्वीप था। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार शाकद्वीप को आज सकताई या सिकीया कहा जाता है। उजिकस्तान, रूस, मगोल, साइबेरिया रूसतातारी इरान ईराक आदि क्षेत्रों में अनेक भूखण्ड पर बसे नगरों के विशाल क्षेत्र का नाम शाकद्वीप था। शाक वृक्षों की बहुलता के कारण इसे शाक$द्वीप शाकद्वीप कहते थे। शाकद्वीप के निवासी शाकद्वीपी कहलाते थे। इस द्वीप में चार वर्ण के लोग रहते थे। जिसमें ब्राह्मणों को मग, क्षत्रियों को मागध, वैश्यों का मानस और शुद्रों को मन्दंग कहते हैं।
(विष्णु पुराण अध्याय 4)
- नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर।

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