भाई बन्धु पत्रिका में हमने वेद के प्रारम्भ भाग में 'क्यों' का 'वैदिक' के बारे में पढ़ा था, और अब धर्म निर्णय के बारे में जानकारी पढ़ेंगे।
(युक्तिप्रमाणाभ्यां हि वस्तुसिद्धि:)
'हेतुवाद' किंवा 'तर्कवाद' धर्म निर्णय का अन्यतम साधन है। वैदिक वाङ्मय में यत्र-तत्र 'क्यों' मूलक प्रश्नों का समावेश है इसका दिग्दर्शन पीछे कराया जा चुका है। स्वभावत: मानवबुद्धि में प्रत्येक विषय की 'क्यों' जानने की जिज्ञासा रहती हैं। स्तनंधय बालक जब से कुछ बोलना सीखता हैं, तब से लेकर आयु भर नवीन वस्तु को देखते ही 'किं' शब्द की मुहारणी रटने लगता है। खासकर बच्चे तो 'यह क्या' 'यह कैसे' और 'किस लिये' आदि प्रश्नों का तांता बांधते हुए अपने अभिभावकों के नाकों दम कर डालते हैं। हमारे पूर्वज महर्षियों ने जहाँ अन्यान्य मानसिक प्रवृत्तियों को उच्छृङ्खलता के दायरे से निकाल कर मर्यादित एवं नियंत्रित करने का पुनीत प्रयत्न किया है, वहाँ हेतुमूलक जिज्ञासा प्रवृत्ति की भी इयत्ता स्थिर करके धर्म निर्णय में इसका उचित मूल्य निर्धारित किया है। तदनुसार शास्त्र कहते हैं कि -
(क) आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते। (अमृतनादोपनिषत्१७)
(ख) आर्ष धर्मोपदेशञ्च: वेदशास्त्राविरोधिना।
यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:।।
(ग) योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्रराश्रयाद् द्विज:।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:। (मनु २/११)
अर्थात् - (क) आगम शास्त्र का विरोध न करके जो समझने की चेष्टा करना है उसे तर्क कहते हैं। (ख) महर्षियों द्वारा समाधिलब्ध वेद और तदुपदिष्ट स्मृत्यादि अनुमोदित धर्म का वेद शास्त्र से अविरुद्ध तर्क द्वारा, जो व्यक्ति अनुसन्धान करता है, वही धर्म को जानता है, अन्य नहीं। (ग) जो द्विज हेतुशास्त्र के आश्रम से=कुतर्कों के बल से-धर्म की मूलभूत श्रुति और स्मृति का अपमान करता है, वह नास्तिक एवं वेदनिन्दक होने के कारण सज्जन पुरुषों द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।
महर्षि वेदव्यास वेदान्तदर्शन (2/1/11) में सुस्पष्ट लिखते हैं कि-
तर्क: अप्रतिष्ठानात्।
अर्थात् - धर्माधर्म-निर्णय में तर्क की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत से सुप्रसिद्ध दार्शनिक श्री भर्तृहरि ने अपने महा महिम ग्रंथ वाक्यपदीक में तर्क की प्रामाण्यता की सीमा सुतरां निर्धारित की है, यथा-
(क) न चागमादृते धर्म:। (१/१३)
(ख) वेदशास्त्राविरोधी च तर्क:। (१/१३६)
अर्थात्- (क) आगम शास्त्रीय प्रमाण के अतिरिक्त धर्म निर्णय में अन्य कुछ प्रमाण नहीं है। (ख) वेद शास्त्र के अविरुद्ध तर्क भी मान्य है।
महर्षि चरक-जो कि भारतीय आयुर्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषियों में प्रमुख हैं-शारीरिक रोगों का प्रधान कारण पूर्व जन्म कृत पाप मानते हुए स्वास्थ्य सम्बद्र्धन के निमित नास्तिक बुद्धि के परित्याग का परामर्श देते हैं। यथा-
बुद्धिमान् नास्तिकबुद्धिं जह्यात्। (चरक सूत्र स्थान ११-७-८)
अर्थात्- बुद्धिमान पुरुष को नास्तिक बुद्धि का परित्याग कर देना चाहिये। तत्व यह है कि हेतुबाद किंवा तर्कवाद धर्म-निर्णय का अन्यतम साधन होते हुए भी धर्माभिमानियों के निकट गौण साधन है। ऋषियों की सम्मति में हमें अपनी जीवन रूपी गाड़ी वेद रूपी इंजन के पीछे जोड़ देनी चाहिये। वह, तर्कवाद रूप पहियों के आधार पर तो अवश्य लुढ़के, किन्तु उसका पथ प्रदर्शक प्रमाणवाद होना चाहिये। यही सनातन धर्म का आदर्श है।
आज भले ही वेदाभिमानी होने का दावा करने वाले आर्यसमाजी, वेद रूपी गाड़ी को अपने तुच्छ तर्क रूपी इञ्जन के पीछे खींचने का उपहासास्पद प्रयास करते हों और इस तरह तर्क को वेद ज्ञान का अन्यतम साधन मात्र न मानकर उसे वैदिकत्व परखने की खरी कसौटी समझते हों, एवञ्ज जिन अनुभवैक-वैद्य विषयों के याथातथ्य निर्णय में वह तर्क कुण्ठित होता दिख पड़ा कि झट उस विषय पर अवैदिकता की मुहर लगाने की घृष्टता कर सकते हो, परन्तु पुरातन काल से कल तक के सभी आस्तिक महानुभावों ने तो एक स्वर से प्रत्यक्षानुमानोपमानादि-सर्व-प्रमाणान्तर से सर्वथा अविज्ञात विषय का 'इदमित्थंÓ ज्ञान प्रदान करना ही वेद का 'वेदत्व' प्रकट किया है, यथा-
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एवं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता।।
अर्थात-प्रत्यक्ष में किंवा अनुमान से अथवा अन्य प्रमाण से जो उपाय नहीं विदित हो सकता उसे वेद से जाना जा सकता है, यही वेद का 'वेदत्व' है। अस्तु,
संसार की प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के लिये तीन अंग आवश्यक होते हैं। संस्कृत साहित्य में उन्हें क्रमश:-पक्ष हेतु और दृष्टांत कहा जाता है। लौकिक भाषा में-दावा, दलील और मिसाल कह सकते हैं, हम इस ग्रन्थ की भाषा में उन्हीं तीनों अंगों को क्रमश: 'क्या, क्यों और कैसे?' कहेंगे।
धर्म क्या है? यह जानना हो तो यह तत्व वेद और धर्म-शास्त्रों द्वारा विदित होगा, अत: हम श्रुति और स्मृति को संक्षिप्त शब्दों में 'क्या'? कह सकते हैं।
तत्तद् धर्म-क्रियायें तथैव क्यों आचरणीय हैं-यह तत्व दर्शन शास्त्रों से विदित होता है, इसलिये उन्हें हम एक शब्द में 'क्यों'? कह सकते हैं।
'क्या' रूप धर्म की 'क्यों' रूप कारणावली को समझ लेने पर प्रत्येक धर्मानुरागी के मन में स्वभावत: यह जिज्ञासा उत्पन्न होगी, कि तादृश धर्मानुष्ठान की इतिकर्तव्यता का, किस व्यक्ति को क्या लाभ हुआ यह कैसे जान जाये। इस तत्व का निरूपण पुराणेतिहास ग्रंथों से जाना जा सकता है। इसलियें इन्हें हम 'कैसे' कह सकते है। इस प्रकार सनातन धर्म की सिद्धि के लिये आर्ष साहित्य में तीनों अंग विद्यमान हैं। वेद ने कहा-'सत्यं वदं' अर्थात् सत्य बोलो- यह दावा है। दर्शन शास्त्र ने कहा-'सत्यप्रतिष्ठायां सर्वव्यवहारसिद्धि:' अर्थात्- सत्य के आश्रय से समस्त व्यवहार सिद्ध हो जायेंगे-यह दलील है। पुराणोतिहास ने साक्षी दी कि जैसे राजा हरिश चन्द्र ने सत्य की उपासना के बल से अपना और अपनी प्रजा का कल्याण किया-यह मिसाल है।
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