अनन्तपारं शास्त्राब्धिं, नानाशङ्कोर्मिसंकुलम्।
सिद्धान्तपोतमारुह्य तरन्तु तरणोत्सुका:।।
जिस प्रकार मुसलमान ईसाई अपने पन्थों के तत्तत् अनुष्ठानों की इतिकर्तव्यता को अवैज्ञानिक एवं कपोल-कल्पिपत होने के कारण 'क्यों?' की कसौटी पर कसने में घबराते हैं और ऐसे जिज्ञासु को 'काफिर' कह कर टाल देते हैं, ठीक इसी प्रकार कुछ हमारे अनुयायी भी वेद शास्त्रों की आज्ञाओं में 'क्यों?' का अडंग़ा लगाना अनुचित अनुभव करते हैं। हम जहाँ इन महानुभावाअें को प्रमाण प्रतिष्ठापक प्रवृत्ति का आदर करते हैं, वहाँ यह भी नम्रतापूर्वक कह देना चाहते है कि जब स्वयं वेद में ही बड़े विस्तार से 'क्यों? वाद' भरा पड़ा है, तब आपको अहिन्दूओं की भांति अपनी धार्मिक व्यवस्थाओं को 'क्यों' की कसौटी पर कसते हुए देखकर भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। सोने के भाव मुलम्मा बेचने वाले व्यक्ति को तो यह भय हो सकता है, कि यदि मेरे इस मुलम्मा को अग्नि में तपाया गया, या कसौटी पर कसा गया, तो इसकी पोल खुल जाएगी, अत: वह केवल कसमें खोकर ग्राहक को विश्वास दिलाना चाहा करता है और परीक्षा से भयभीत हुआ करता है, परन्तु जिसके पास खरा सोना हो, उसे परीक्षा से घबराने की क्या आवश्यकता? वह तो भरी सभा में अपने खरे सोने को आग में तपाने और कसौटी पर कसने की खुली छुट्टी देता है। चैलेंज करता है!! ललकारता है!!! ठीक, इसी प्रकार अहिन्दू घबराएँ तो घबराएँ! क्योंकि वे जानते हैं कि वैज्ञानिक कसौटी पर हमारा मजहब खरा साबित नहीं हो सकता, इसलिए उनके यहाँ 'बाइबिल या कुरान पर यकीन लाओ!' अथवा 'खुदा के इकलौते बेटे इसा पर या अन्तिम पैगाम्बर मुहम्मद पर यकीन लाओ' का बोलबाला रहता है। ईसाई जगत् तो मजहब को केवल चर्च की चार दीवारी के अन्दर ही चर्चा करने योग्य वस्तु मानता है। चर्च में बैठो तो कहा 'खुदा ने सिफ छ: दिन में कुल दुनिया बना दी।' साइन्स रूम में जाओं तो कहो 'नहीं सांच के आंच' के अनुसार, जब मैँ जानता हँू, कि सनातन धर्म खरा सोना है, ग्राहक जैसे चाहे वैसे परीक्षा कर देखे, तब मुझे उसे 'क्यों' की कसौअी पर कसने का खुला अवसर देते हुए आपति क्या?
: विरोधी भी शरण में :
नि:सन्देह हम प्रमाणवादी हैं, परन्तु संसार में समस्त पुरुषों को खुला निमन्त्रण देते हैं कि वे जैसे चाहे हमारे धर्म की परीक्षा कर देखें। सोलहों आने विश्वास है, कि वे जब परीक्षा करने के लिए प्रवृत्त होंगे, तो कुछ दिन में स्वयं सनातनधम्र की सतयता के विश्वासी बन जाएंगे। यह हम स्वयं अनुभव कर चुके हैं।
एक बार लायलपुर (पंजाब) में और नैरोबी (अफ्रीका) में श्री मद्भागवत पुराण की कथा करते हुए, हमने आर्य समाज के जिम्मेवार व्यक्तियों को स्वयं इसलिए निमन्त्रण दिया, कि वे कथा सुनते हुए शङ्कस्पद बातों को नोट करें और कथा के अन्त में पूछें, उत्तर दिया जाएगा। प्रथम दिन वे बड़े जोश के साथ आए, दशों बातें नोट कीं, अन्त में उत्तर दिया गया। दूसरे तीसरे दिन शङ्कओं की संख्या कम होने लगी, दो-चार बातें ही पूछीं। एक सप्ताह के बाद ऐसा अवसर आ गया, कि वे नित्य ही भांति कागज पैंसिल तैयार किए बैठे रहे परन्तु नोट कुछ नहीं किया जब अन्त में पूछा गया कि आज कुछ क्यों नहीं नोट किया तो उनके मुखिया ने कहा कि शङ्का की दृष्टि से कथा सुनते हुए कथा का रस भंग हो जाता है, आत मुझे ऐसा आनन्द आया कि रस में तन्मय हो गया, आज से आगे कागज पेंसिल ही न लाऊंगा। इस शांतिपूर्ण मार्ग का तो मुझे आज ही पता लगा है, खाक डालो शङ्काओं के सिर पर। बस, उस दिन से वे सब लोग एक सच्चे कथा श्रोता की भांति आने लगे। आर्य समाज में इसकी बहुत चर्चा चली। कई कट्टर कठमुल्लाओं ने इसमें आर्यसमाज की 'तौहीन' अनुभव की। मिटिंग बुलाकर प्रस्ताव पास कर दिया कि 'पुराणों की कथा में समाज का कोई सदस्य सम्मिलित न हो' - परन्तु वह पार्टी नहीं हटी। नगर के सुप्रतिष्ठित सज्जन होने के कारण उन पर अनुशासन का शस्त्र न चल सका।
ऐसे में कई उदाहरण हुए है। यहाँ पाठकों को हमारे प्रत्येक समाधान में प्रयुक्त 'विज्ञान' शब्द को देखकर इस प्रकार की आशंका नहीं करनी चाहिए कि जब वेद स्वत: प्रमाण हैं तब वेदोंक्त भावों के भी समर्थन के लिए 'वैज्ञानिक विवेचन' करना मानों वेदों के प्रामाण्य में संदेह करना है- जो किसी भी आस्तिक को अभीष्ट नहीं हो सकता। परन्तु यह शंका व्यर्थ है क्योंकि स्वयं वेद, विज्ञान द्वारा अपने को समझने का आदेश देता है यथा :-
विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति इमञ्च
लोकममुञ्च विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते
(छान्दोग्य ७/७/१/२)
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