जानिए आर्य संस्कृति और हिन्दू धर्म का रहस्य



(सम्पूर्ण विश्व के सम्बन्ध में)
भारतीय संस्कृति देव संस्कृति है, भारतीय भाषा (संस्कृत) देव भाषा है, पृथ्वी के कण-कण में देव विराजित है। कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति से उत्पन्न संतान देव संतान हुई एवं दिति से उत्पन्न असुर संतान वेदों में देव तथा असुर दोनों नाम परमात्मा के लिये आये हैं। पुराने समय में भारत में दो वर्ग थे- 1. देव संतति परमपरा में देव उपासक। 2. देव संतति परम्परा के असुर उपासक।
जब असुरों को आदर्श मानने वाले लोग धर्मच्युत होकर भारत से निर्वासित होकर विश्व में फेले तप उन्होंने देव शब्द का तिरस्कार किया। अंग्रेजी, फारसी, अरबी में राक्षस के अर्थ में देव का वर्णन होता है। छंदोग्य उपनिषद् में आया है कि शव को अलंकारों से सजाने असुरों का धर्म हैं। उपनिषदों में इन्द्र एवं विरोचन की कथा है। ये दोनों ब्रह्मा जी के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए गये ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि अलंकृत होकर अपना प्रतिबिम्ब पानी में देखा। जो जलमें दिखता है वहीं आत्मा है। विरोचन सन्तुष्ट होकर लोट आया एवं उसने असुरों में देहात्मवाद का प्रचार किया। शरीर ही आत्मा हो उसे सजाना, उसकी सेवा करना धर्म है मरने पर उसे सुसज्जित रखना चाहिये। आत्मा प्रलय तक उसी से रहती है। धर्म के प्रति प्रमाद के कारण शरीर के प्रति आकर्षण होता है। वे देहात्मवाद के संस्कार भारत से लेकर गये। यह सत्य नहीं है कि विश्व में आदि काल से शब्द को गाडऩे की प्रथा है। इसका प्रकार पारसीधर्म  तथा इसकी शाखा यहूदी ईसाई, मुस्लिम धर्मों के कारण हुआ है। जो प्राचीन धर्म नहीं है।
बोगेज कुई शिलालेख से पता चलता है कि रोमन लोग अग्नि होत्र करते थे वे भोजन के पूर्व अग्नि में अन डालकर यज्ञ वेदी को प्रणाम करते थे। वे शव दाह तथा श्राद्ध कर्म भी करते थे।
ब्राह्मण :- ब्राह्मण जन्म से ब्राह्मण होता है। (ब्राह्मण माता-पिता की संतान), संस्कारों से द्विज होता है, ज्ञान से क्षत्रिय होता है।, पूज्य एवं अपूज्य अपने कर्मों से होता है। इन्सान संत हो सकता है।, पूजनीय हो सकता है महात्मा हो सकता है, चरण स्पर्श कराने की योग्यता हो सकती है, पर ब्राह्मण नहीं हो सकता।
अफ्रीका मिस्त्र (मिश्र) - मिश्र के फेरो राजा अरवानातन का नाम विशेष उल्लेखनीय है चूंकी उसने मिश्र में पशु देवताओं के स्थान पर एटन (सूर्य देवता) की पूजा आरम्भ की उनका मन्दिर बनवाया। उस  मन्दिर में सूर्य भगवान के एक ऐसे मण्डल की स्थापना की गई जिसकी चारों दिशाओं से तेज निकलकर मानव हाथों में प्रवेश करता हुआ दिखलाया गया। यह इस बात का द्योतक था कि भगवान का वरद हस्त संसार के सभी लोगों को समान रूप से उपलब्ध है। 
उसने लिख - हे शाश्वत सूर्य जीवनोद्ग्म, स्वर्गीय प्रकाश के उद्गम स्त्रोत तूं जिस शान के साथ आरोहन कर रहा है। तूं ने अपनी इच्छानुसार संसार की सृष्टि की है तूने प्राणी मात्र को शाश्वत आश्रय प्रदान किया है इत्यादि आश्वानातन के बाद उसका जामाता तुतखिमन गद्दी पर बैठा।
हिस्टोरीकल हिस्ट्री ऑफ दी वल्र्ड नामक पुस्तक में लिखा है कि इजिप्ट वासी पणिकों की एक शाखा है (पणिक का सम्बन्ध भारत के पाण्डय प्रदेश से है।) मिश्र में सूर्य मन्दिर मिले हैं। पिरामिड़ो में जो लाशे मिली है उनमें नील लगी हुई है और उनमें इमली की लकड़ी काम में ली गई है। ये केवल भारत में ही होते है (नील, इमली) मिश्र की भाषा में कमित नाम है। कमित याने कुभृत (काली मिट्टी) का अपभ्रंश यहां के वजन से संबंधित नाम भारतीय है। मिश्रवासी अपने को सूर्यवंशी कहते है। सूर्य की पूजा करते हैं। वे पुर्नजन्म के सिद्धान्त को मानते है तथा मनु को अपना मूल पुरुष मानते है। मिश्र के पेकिन नगर में महाकालम्यो नामक एक मन्दिर है। वहां महाकाल की मूर्ति है। मन्दिर के एक भाग में मच्छेदरनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) की मूर्ति ही दूसरे भाग में दतात्रेय का पद चिह्न है। क्षत्रियों कि एक जाति झल्ल शास्त्रों में वंछित है। अफ्रिका में जाकर यह जाति जूलू हो गई। एत्ऐभ ब्राह्मण में राजा महंत के मष्णार देश में बड़े-बड़े हाथी एवं सुवर्ण दान किया।रोडेशिया में मष्णा एक स्थान है।
यूरोप : धर्मच्युत क्षत्रिय जातियों में किरात एवं चीना भी है। मनुस्मृति में दोनों के नाम है। इन्हीं दोनों जातियों के मेल से मंगोलियन जाति पैदा हुई। मंगोलियन जाति जो स्वेेज के पास रहती थी, उसने यूरोप के निवालियों को पराजित किया। यह यूरोप की केल्ट जाति की जन्मदात्री है। अफ्रीका की जूलू जाति एशिया माइनर में पहुंची। मंगोल जाति पीली थी और जूलू काली। इन्हीं के मेल से यूरोप की श्वेत जातियां उत्पन्न हुई। जिस शुद्ध आर्य जाति से यूरोप के लोगों ने शतम् भाषा सीसी वे अब भी यूरोप में है। रूसी और जर्मन भाषा उस आर्य जाति की भाषा से बनी है। यूरोप में यह जाति जिप्सी कहलाती है। ये वर्तमान में हिन्दी से मिलती जुलती भाषा बोलते है। ये लोग ईसा से बहुत पहले से वहां रहते हैं। भारतीय ज्योतिषियों की तरह फलित बतलाते है। इस जाति ने यूरोप में लोहे के ढालने की विद्या फैलाई। 
अमेरिका- प्राचीन अमेरीकावासी नाग पूजक थे। वहां इन्द्र एवं गणेश की पूजा होती है। अमेरीका में हाथी नहीं होते हैं। अतैव मूल निवासी बाहर से नहीं गये तो हाथी की कल्पना कैसे कर सकते हैं। वहां भी हाथी के सर लगे गणेशजी की पूजा की जाती है। यहां के वासिंदों का रंग नेपाल के लोगों की तरह लालिमा लिये मंगोलियन जैसा है। अमेरिका में भी सूर्य मन्दिर एवं पिरामिड मिले है। अमेरिका एवं मिश्र की सूर्य मूर्तियां भारत के एलोरा गुफा की मूर्तियों के समान है। अमेरीका के मूल निवासी सूर्य पूजा करते है, उत्सव मनाते है, जिसका नाम राम-सीता है। यहां भी वैवस्वतमनु के जल पलावन की कथा प्रचलित है।
नेपाल- नेपाल में प्राय: कान्यकुब्ज ब्राह्मण और सूर्य वंशी क्षत्रिय है।
बलोचिस्तान - वहां के किरात भारतीय किरातों की शाखा के ही है। 
सिथिया- इसे भारत से निकालित शको ने बसाया। शक लोग राजा नरिख्यन्त के पुत्र थे। महाराज सागर ने इन्हें अर्ध मुण्डित करके तीन शाखाओं वाला बना दिया। चीन में तीन चोटियां रखने की प्रथा अबतक है। चीनी, मंगोल, तातर अपने को चन्द्रवंशी बतलाते है।
चीनी तातर - ये लोग अपने को आर्य का वंशज कहते है। अय पुरुखा के पुत्र है। इन्हीं के वंश में यदु के पोत्र ह्यू (हयू) हुए। चीनी लोग इन्हीं को ह्यू (हयू) कहते है और अपना पूर्वज मानते हैं। चीन वाले अपने मूल ह्यू (हयू) की उत्पति के सम्बन्ध में कहते है कि ह्यू की माता का सम्बन्ध एक तारे से हो गया और ह्यू की उत्पति हुई। यह कथा बुध तथा इलाकी कथा का रूपान्तर है। 
आन्ध्र, द्रविड, कोल- ये सभी भारतीय धर्म च्युल जातियां है। क्षत्रियों में अब भीएक सिंहला जाति है। उन्होंने सिहंल द्वीप बसाया।
आस्ट्रेलिया- यह नाम आन्ध्रालय का अपभ्रंश है। इनकी भाषा भारतीय द्रविड़ एवं कोलो से मिलती है इनमें भी हिन्दुस्तान की भांति जाति भेद है। ये दूसरों को छुआ हुआ नहीं खाते हैं। पुर्नजन्म में विश्वास रखते है।
अनवेपधे ने सभी देशों के मूल पुरुषों के काल्पनिक चित्र खोज के आधार पर प्रस्तुत किये। उनमें सबके पास धनुष-बाण है। यह भारतीय शास्त्र विश्व की प्रत्येक मूल जाति के पास है।
मनु स्मृति में ब्राह्मणों से उत्पन्न प्रतिलोम व्रात्य (ग्लेच्छ) हुए। अर्थववेद की पैण्लाड शाखा ही पारसी धर्म की मूल है। गोपथ ब्राह्मण के १/१५ मंत्र के अनुसार शन्नोदेवी इस मंत्र से अर्थवेद पढऩा चाहिये। यही बात पारसीक धर्मग्रन्थ होमयस्त के १/२४ में कही गयी है। इसी पारसी परम्पराये यहूदी ईसाई और इस्लाम धर्म की है।
भारत- भारत में पाण्डय तथा चोल प्रदेश है। यहां के लोग दूर-दूर तक व्यापार करते थे अधिक लोभ के कारण वैश्य लोग जाति बहिष्कृत हुए। उन्होंने भू-मध्य सागर के किनारे जाकर अपने देश बसा लिये। पाण्डय के वणिक या पणिक लोगों का देश फिनिशिया कहलाया और चोल वालों का चाल्डिया। बेबीलोनिया वालों के वायु देवता का नाम आज भी मर्तु है। जो मरुत का अपभ्रंश हैं। संस्कृत या वजन के अर्थ में मन फिनिशिया का मनह कहलाता है।
संस्कृत का क्रमेलक (ऊँट) भी अंग्रेजी केमल और फारसी में जिनस हो गया। भविष्य पुराण के अनुसार कण्य ऋषि मिश्र गये यहां से दश सहस्त्र निदार्ध यहां ले आये।
जुडिय़ा- महूदियों का मूल देश जुडिय़ा है। वहां की जुदा जाति भारत की यदुवंशी धर्मच्युत क्षत्रिय जाति ही है। मेदनीकोष के अनुसार जू शब्द का अर्थ यक्र होता है। यहूदी अपने को जू कहते है। महाराज सगर की आज्ञा से यवनों ने जो पल्ली (नगर) बसाया वहीं पल्लीस्थान कामान्तर में पेलेस्टाइन- फिलस्तीन कहलाने लगा।
अस्तेरिया- यहां के प्राचीन राजाओं के नाम सुपरदह, जशदत आदि बताते है कि उनका सम्बन्ध भारत से था।
मेसापोरामिया- इसके प्राचीन खण्डरों के खोदने पर जो ईंटे निकली उन ईंटों पर मिताई तथा हिलाई राजाओं का सन्धी पत्र खुदा हुआ था। उसमें मित्र वरुण, इन्द्र नासत्य आदि देवताओं के नाम है। 
ब्रह्मा, मलेशिया स्याम (थाइलैण्ड) पूर्वी द्वीप समूह इन सभी स्थानों पर नदियों व्यक्तियों एक नगरों के नाम संस्कृत के दोही वाली द्वीप में हिन्दू धर्म एक रूप में अब तक विद्यमान है।
जापान - जापान में जो जाति है वह चीन से जाकर वहीं है। चीन में पेतीसी और ओव नदियों के किनारे बसी जातियां भारतीय संस्कृत से मिलती जुलती अपार बोलती है।
इस प्रकार एशिया माइनर के सभी देश प्राचीन हिन्दूओं की निर्वाचित बस्तियां है।
ईरान, पार्स व पारसी- यूनानियों ने ईरान की राजधानी पार्स के नाम पर पारसी कहना आरम्भ कर दिया। इस्लाम आने पर अरबों का प्रमुख  हो गया। तब से फारस हो गया। अरबी वर्णमाला में 'पÓ उच्चारण नहीं है।
ईरान (एरान) आर्य मल के लोगों के लिए प्रयुक्त शब्द एर्यमन से आया है। जिसका अर्थ है आर्यों की भूमि। हरवमानी शासकों के समय आर्यम, एइरयम शब्दों का प्रयोग हुआ है। पूर्व में सिकन्दर के आक्रमण के समय अवेस्ता आदि सभी ग्रन्थ जला दिये गये। बचे कुछ भागों को जोड़-तोड़ कर पुन: दूसरी शताब्दी ई.पूर्व में आर्यो के आगमन के बाद लिखा गया। शशानी राजाओं के समय में मग याजको एवं पुरोहितों का बड़ा प्रभाव था। तब से स्थूल देवताओं की उपासना ज्योंकि त्यो जारी हो गई। अवेस्ता के गाथा भाग की भाषा उपभ्रंश वैदिक संस्कृत है। शशानों के समय अवेस्ता के भाष्य लिखे गये। इनमें वेद व्यासजी के पारस में जाना लिखा है। अर्तव वेद व्यासजी एवं जरयुस्त्र समकालिन हो सकते है। वैदिक युग में पारस से लेकर गंगा सरयू तक की काली भूमि आर्य भूमि थी। आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वीय प्रदेश 'अरियान' या ऐर्यान (यूनानी-एरियान) कहलाता है। इससे ईरान शब्द बना। ईरान शबद अर्धवास के अर्थ में सारे प्रदेश के लिये प्रयुक्त होता है। प्राचीन पारसी अपने नाम के साथ आर्य शब्द बड़े गौरव के साथ लगाते थे प्राचीन सम्राट दारयबहु (द्वारा) ने अपने को अरियपुत्र लिखा है। सरदार्रो के नामों के साथ भी आर्य शब्द मिलता है। अदेस्ता में भारतीय प्रदेशों की नदियों के नाम भी है। हफ्त हिन्दू (सप्तसिंधु) हरयू (सरयू) हरख्वेती (सरस्वती)। वरुण के लिये असुर शब्द प्रयोग होता था। अतैव देवोपासक एवं असुरोपासक दो पता आर्यों के बीच हो गये। जरथुस्त्र (आधुनिक फारसी-जरतुरत) नामक ऋषि असुरोपासक थे। इन्होंने अपनी शारवा अलग करती और जंद अवस्ता के नाम से अपनी शारदा केा चलाया। यहीं अहुरमज्द-सर्वज्ञ असुर।
मगुस- बहुवचन मागी-यज्ञ कराने वाले पुरोहित।
ऐसा इतिहास मिलता है कि ईरान में प्रचलित धर्म का संस्कार उन मग पुरोहितों के द्वारा हुआ, जो वहां उत्तर-पश्चिम में सासानी नरेशों के समय में आये। मग अपने साथ धर्म का परिष्कृत रूप लाये, वहीं ईरान में राज्याश्रय पाकर चल गया। ईरान की प्रचलित भाषा पहलवी थीं, जो आजकल की ईरानी-फारसी का पूर्व रूप थी। मग अपने साथ जो भाषा लाये वह जेन्द थी। जेंद संस्कृत के अधिक निकट है। इससे यह अनुमान होता है कि मगों के हाथों अवेस्ता को आर्य उपजाति की उस शाखा के संस्मरण मिले जो धु्रव प्रदेश के प्रवास कर चुकी थी। मग लोग ही उपासना के समय आथ्रवन हो सकते है। 
आथ्रवन- अथर्वन (वैदिक) यज्ञ कराने वाले पुरोहित।
सभी जाति एवं बीजों को संरक्षित करने के लिए ध्रुव प्रदेश के एक बड़ा बनाया गया। जहां उन्हें संरक्षित किया गया। फिर हिमाच्छादन के कारण वह रहने योग्य नहीं रहा। अतैव वहां से वह स्थान छोडऩा पड़ा। सम्भव है कि उन्हीं के वंशज मग  हुए। यह लगभग 10,000 वर्ष पुरानी बात है। जरथुस्त्र ने अहुरमज्द से पुछा कि अवैस्ता का प्रचार किसने किया। तब अहुरमज्द ने कहा कि दिनस्वान के पुत्र यमि ने किया।अवेस्ता में 15 वां स्थान सप्तसिन्धु और 16वां स्थान रसा (काबुसनदी का प्रदेश) फिर वहां से पश्चिम अर्थात् ईरान की और आर्य गये।
वीर विनोद में लिखा है कि 626 ई. में कुदसिया की लड़ाई में ईरान के बादशाह यज्दगुर्द को अरबी लोगों से शिकस्त मिली। तभी से ईरानियों को मुस्लमान होना पड़ा। इससे पहले यहां की भाषा व धर्म आर्यों जैसा था। वे अग्नि होगी। उनमें ब्राह्मण आदि चार वर्ण थे। प्राचीन हिन्दुस्तान एवं ईरान के काल चयन मत व्यवहार आदि में विशेष अन्तर नहीं था।

अन्य संस्कृतियों से भेद के कारण - 
1. रंगों का भेद जलवायु के कारण हुआ। एक ही जाति के लोग जो आस्ट्रेलिया गये काले हो गये एक जो मिस्त्र गये वे गोरे हो गये। फिरात जाति बलोचिस्तान में गौरी, भारतीय जंगलों में काली तथा चीन में गई पीली हो गई।
2. सामाजिक बन्धन न होने से कुछ प्रमाद आचार बन गये। ब्राह्मण न होने से क्रिया संस्कारों का लोप हो गया।
3. अमेरिका, आस्ट्रेलिया के मूल निवासिायों को छोड़ दे तो विश्व की दूसरी सब जातियां पूनर्जन्म में विश्वास नहीं रखती। वे अपने मुर्दों को जलाते नहीं। उनका विश्वास है कि जीवात्मा प्रत्येक कब्र में रहता है।
भारत वर्ष में जाति भेद- सम्पादक हजारी प्रसाद डिरेडी।
1901 की मर्दुमशारी के अनुसार मन्दिर पुजारी भोजक - 1200 (राजपुताना), सेवक - 6800 (राजपूताना)
इसी पुस्तक के 143 पर लिखा है कि सारस्वत ब्राह्मणों की एक श्रेणी भोजक कहलाती है। ये लोग ज्वालामुखीवासी है। उस प्रदेश के अन्यान्य ब्राह्मणों का कहना है कि भोजक लोग पहले खेती करते थे। मन्दिर में सेवा कार्य करने के कारण ब्राह्मण हो गये।
इसी पुस्तक के पेज 140 पर लिखा है कि मगीय लोग भी ब्राह्मण हुए। शाकद्वीपीय ब्राह्मण विदेशी है पहले वे लोग सूर्य मन्दिर में पुरोहित थे। इण्डिया विज. 549  के पृष्ठ 45 के अनुसार ये लोग पारसियों के पुरोहित थे और ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे।
शाकद्वीपीय ब्राह्मण मग कहलाते थे। जिन्हें पुत्रेष्ठि यज्ञ में दशरथ जी ने वशिष्ठ जी के कहने पर बुलाया था। दूसरी बार साम्ब गुरुड़ जी पर लेख आये (अष्टादश कुल स. पुत्र दारान) भविष्यपुराण का प्रति सर्ग क्षेपक है। वह बाद में जोड़ा गया है। मगा ब्राह्मण भूयष्ठा: 
            श्री निवास शर्मा, इन्दौर, मो.: 9617073173
- शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण शोध केन्द्र 




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