जैन धर्म के श्वेताम्बर परम्परा में तेरापंथ धर्मसंघ प्रगतिगामी धर्मसंघ के रूप में जाना जाता है। तेरापंथ की स्थापना वि.स. 1817 की आषाढ़ी पूर्णिमा को हुई। इसके आघ प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की स्थापना करके नयी धर्म क्रान्ति का शुभारम्भ किया। तेरापंथ नामकरण में सेवग जाति के एक कवि का दोहा मुख्य कारण बनी। घटनाक्रम के अनुसार जोधपुर के श्रावक एक दिन बाजार की उसी दुकान पर, जहां पहले स्वामीजी ठहरे थे, एकत्रित होकर, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्मनुष्ठान कर रहे थे, संयोगवश उसी समय फतहमलजी सिंघी का बाजार में आगमन हो गया। वे एक जैन श्रावक थे और उस समय जोधपुर राज्य के महामंत्री (दीवान) भी। बाजार की दुकान में श्रावकों को सामायिक करते देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। वे उस दुकान की ओर आयश्े और श्रावकों से पूछने लगे- आप लोगों ने स्थानक में सामायिक न करके यहां बाजार में कैसे की है?
श्रावकों में गेरूलालजी व्यास वहीं थे। उन्होंने आचार्य रूघनाथजी से स्वामी भीखणजी के पृथक होने की सारी घटना कह सुनाई और बतलाया कि अनेक मेतभेदों के साथ-साथ स्थानक के विषय में भी स्वामीजी अपना भिन्न मत रखते हैं। उनका कथन है कि साधुओं के निमित्त कोई स्थान नहीं होना चाहिए। मठाधीश और परिग्रही का साधुता से क्या सम्बन्ध हो सकता है? गृहस्थावस्था का अपना एक घर छोडऩे वाला साधु यदि ग्राम-ग्राम में घर बनाकर बैठ जायेगा तो वह गृहस्थ से भी गया-गुजरा हो जायेगा।
आगम-दृष्टि से भी अपने निमित्त बने स्थान का उपभोग करना सदोष है। स्वामीजी के इन विचारों से हम सब भी सहमत हैं, अत: स्थानक को छोड़कर यहां सामायिक कर रहे हैं।
अन्य मतभेदों के विषय में सिंघीजी ने जिज्ञासा की, तब श्रावकों ने कहा, सारी बातों को सुनने में काफी समय लग सकता है। आज तो आप किसी कार्यवश जाते हुए मार्ग में से यहां पधार गये हैं, फिर कभी पूरा समय निकालें तो सभी विषयों पर बात की जाये।
महामंत्री ने जिज्ञासा की उसी मुद्रा में कहा, इस समय मुझे अवकाश ही है। कोई ऐसा आवश्यक कार्य सामने नहीं है, जो अभी करना हो। आप लोग निश्चित होकर पूरा विवरण सुनाइये।
श्रावकों ने तब श्रद्धा और आचार-सम्बन्धी सारे मतभेद उनके सम्मुख रखे और प्रत्येक के विषय में स्वामीजी के विचारों से उन्हें अवगत किया।
सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन लेने के पश्चात् उन्होंने पूछा, इस समय कितने साधु इस विचारधारा का समर्थन कर रहे थें?
श्रावकों ने उत्तर दिया-'तेरह।'
उन्होंने फिर पूछा, अपने यहां जोधपुर में उनका अनुसरण करने वाले आप लोग कितने श्रावक हैं?
श्रावकों ने कहा, हम लोग भी तेरह ही हैं, जो सभी यहां उपस्थित है।
महामंत्री ने तब हंसते हुए कहा, यह अच्छा संयोग रहा कि तेरह ही साधु और तेरह ही श्रावक।
नामकरण - सिंघीजी के साथ उस समय 'सेवग' जाति का एक कवि भी था। वह उपर्युक्त सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। साधुओं और श्रावकों की संख्या का वह आकस्मिक समय योग उस कवि-हृदय व्यक्ति को प्रेरणादायक बना और उसने उसी समय एक दोहा बनाकर सुनाया। उस दोहे में 'तेरह' की संख्या के आधार पर स्वामीजी और उनके अनुयायियों को 'तेरापंथीÓ नाम से सम्बोधित किया गया। वहा दोहा इस प्रकार है :
साध साध रो गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लोगां, ऐ तेरापंथी तंत।
तेरापंथ का अर्थ - स्वामीजी के पास नामकरण के समाचार पहुंचे। उस समय वे बीलाड़ा या उसके समीपवर्ती किसी क्षेत्र में थे। उन्होंने नामकरण के समय की उक्त सारी घटना को सुना तो उनकी मूलग्राहिणी प्रतिभा ने उस शब्द को तत्काल स्वीकार कर लिया। कवि द्वारा सहज रूप से व्यवहृत उस 'तेरापंथीÓ शब्द को उनको बड़ा अर्थ-गौरव जान पड़ा। उन्हें अपनी आन्तरिक विचारधारा की सारी अभिव्यक्ति उसी एक शब्द में होती हुई दिखाई दी। तत्काल उन्होंने उसे अपना 'प्रतीक शब्द' बना लिया और अपने संघ की 'संज्ञाÓ के रूप में स्वीकार कर लिया।
राजस्थानी भाषा में संख्यावाची 'तेरह' शब्द को 'तेरा' कहा जाता है और 'तू' सर्वनाम की सम्बन्ध-वाचक विभक्ति का एकवचन भी 'तेराÓ बनता है। स्वामीजी ने उन दोनों ही शब्द-रूपों को ध्यान में रखते हुए अपनी प्रत्युत्पन्न बुद्धि के द्वारा उक्त शब्द की व्याख्या की। अपने आसन का परित्याग कर वन्दन-मुद्रा में बैठते हुए उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और बद्धाजलि कहा, 'हे प्रभो! यह तेरापंथ है। हम सब निभ्र्रान्त होकर इस पर चलने वाले हैं, अत: 'तेरापंथी' हैं।"
मूलत: कवि की भावना को तेरह की संख्या ने ही प्रेरण प्रदान की थी: अत: स्वामीजी ने उसे भी उतना ही महत्व दिया और उस शब्द का दूसरा संख्यापरक अर्थ करते हुए कहा, 'पांच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्यचर्य और अपरिग्रह), पांच समितियां (ईष्र्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग) एवं तीन गुप्तियां (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) ये तेरह नियम जहां पालनीय हैं, वह तेरापंथ है।' इस तरह जोधपुर दीवान के साथ आए 'सेवगजी' की तेरापंथ के नामकरण में ऐतिहासिक भूमिका बन गयी।
- जैन लूणकरण छाजेड़, बीकानेर, मो.: 9414139192
good knowledge about Tera panth
ReplyDeletebest book of our community