जानिए कैसा है? ऋषिवर शाण्डिल्य का भक्ति रूप


     शाण्डिल्य ने भक्ति को दो खण्डों में बांटा है। एक साधन रूप भक्ति व दूसरी सांध्य रूप भक्ति। साधन रूप भक्ति को उन्होंने गौणी भक्ति कहा और साध्य रूप भक्ति को उन्होंने परा भक्ति कहा। उस विभाजन की गहराई और विस्तार आज के सूत्र में लिख रहा हँू। 
सुकृतजत्वातं परहेतू भावात् च क्रियासु श्रेयस्य:।।
     शाण्डिल्य बहुत वैज्ञानिक है। ध्यान रखना कि श्रवण का लाभ है, मनन का लाभ है, अध्ययन का लाभ है, निदिध्यासन का लाभ है, भजन कीर्तन, नर्तन सबका लाभ है, लेकिन परम लाभ इनमें नहीं है। इनका उपयोग सीढिय़ों की भांति कर लेना। यह सब कार्य पराभक्ति में पहुंचने के रूप है और वे यह भी कहते है कि सब प्रकार के पुण्यों में श्रेष्ठ है। मन्दिर बनवाया, धर्मशाला खुलवाना, प्याऊ बनवाना सब ठी है लेकिन कीर्तन के बराबर इसका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि तुम जो भी करोगें, उसमें कही न कहीं तुम्हारा अहंकार परिपुष्ट होगा जिससे 'सूक्ष्मÓमें  'मैंÓ मजबूत होगा। जबकि भजन, कीर्तन,  सत्संग, नर्तन आदि की मौलिक शर्त है- होने देना, भाव से उमगने देना, अपने भीतर से बहने देना। कर्ता नहीं बनना। सहज, स्वाभाविक व स्वस्फूर्त हो तो वह भजन है। पुण्य करना पड़ता है, अगर भजन भी करना पड़े तो वह भजन नहीं होगा। 
     अक्सर यह भूल हो जाती है कि साधन साध्य समझ लिए जाते है। तब साधन ही बाधक हो जाता है जो पकड़ लिया तो तुम उस पार ले जाती है उस नाँव को ही पकड़ लिया तो तुम उस पार नहीं पहुंच पाओंगे अत: आसक्ति कही भी हो तो वह बाधक ही होगी। इससे यूं समझले कि आदत अच्छी हो या बुरी, आदत बुरी ही होती है चाहे वह सत्संग की है तो तुम कहेंगे अच्छी आदत है लेकिन यह गौणी भक्ति है पर भक्ति तक पहुंचने की सीढ़ी है इसे छोडऩा होगा मगर गन्तव्य तक पहुंचकर।  महर्षि अरविन्द ने भी कहा है कि 'प्रारम्भ में जो साधक है वहीं अन्त में बाधक बन जाता है। जिनको हम बुरी आदतें कहते है उनकी सीमा तो देह है, और जिनको हम अच्छी आदत कहते है वे आत्मा को विकृत करती है अत: परा भक्ति का अर्थ हैÓ चिन्ता की वह दशा जिसमें भगवान और भक्त में कोई भेद न रह जाए। जैसे बर्फ पिघल कर एक ही जल बन जाए।  हमारा अहंकार पिघलकर भगवता में लीन हो जाए। जहाँ हम न ही हमारी कोई धारणा बचेगी तभी जो छिपा है हमारे भीतर वह प्रकट होगा। 
     इंग्लैण्ड की महारानी एक बार लंदन के एक बड़े चर्च में गई। बड़ी भीड़ देखकर रानी चकित हुई। उसने पादरी से पूछा कि मैं सोचती थी कि लोगों का धम्र से विश्वास उठ रहा है लेकिन यहा तो इनते भाव से लोग काफी संख्या में मौजूद है। पादरी ने कहा आप कभी बिना खबर किए आइये। यहां कोई नही आते थे सब आप के लिए आये है। ये परमात्मा के लिए नहीं आये है। दो दिनों से फोन ही फोन आ रहे है कि रानी निश्चित ही आ रही है या नहीं। मैं सबको कहता हँू कि रानी का तो पक्का नहीं पर परमात्मा यहां निश्चित ही हैं पर परमात्मा से किसको लेना देना वे तो रानी के समक्ष पहली पंक्ति में होना चाहते है।
  इसलिए ऋषिवर शाण्डिल्य कहते है कि सावधान रहना। दूसरों से ही नहीं अपने से भी सावधान रहना अपने भीतर परख करते रहना। जब तुम्हारा अहंकार गलता है तो उसमें से असहाय अवस्था की आहट उठाना शुरू होती है उसी आह को भवन कहते है। आँसू टपकने शुरू होते है न कि तुम उन्हें गिराते हो। तुम सम्भालना भी चाहो तो नहीं सम्भाल पाते। भक्त असहाय होता है, उसकी प्रार्थना कृत्य की तरह नहीं निकलती। वह भगवान से बाते करता है। भक्त बिल्कुल पागल है वहीं पागलपन भजन है।
- चिरंजीव 'अलेकतान्त', लाडनूँ - मो.: 7665281791




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