पुराने जमाने में जम्बूद्वीप से विभिन्न द्वीपों में आने-जाने वाले थल और जल दोनों मार्गों से जुड़े थे। अफरीकन देशों में व्यापार भाटिया जाति के लोग जल मार्गों से जहाजो द्वारा व्यापार करते थे तथा थल मार्गों से वर्तमान पाकिस्तान, मुलतान, रावलपिण्डी, काबुल, कंधार, गजनी (अफगानिस्तान), ताषकन्द, समरकन्द सूदूर देशों में व्यापारी आते जाते थे। आगे जाकर यह मार्ग सिल्क रूट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तीसरा जल ओर थल दोनों मार्गों से व्यापार इरान फारस इराक तुर्की अरबीस्तान जादुन इजरायल आदि देशों की ओर आता जाता था। इसी कारण इन क्षेत्रों के परस्पर सांस्कृतिक साक्ष्यों को हम जम्बूद्वीप के जैसलमेर नगर में आज भी देख सकते हैं।
डाँ मोतीचन्द ने 'सार्थवह' नामक अपने ग्रंथ में मोहनजोदड़ो काल से लेकर सातवाहनों व प्रतिहारों के समय तक समुद्री बेड़ों द्वारा अरब सागर के माध्यम से दूरवर्ती देशों में होने वाले व्यापारिक संबंधों का बहुत ही अधिकाधिक वर्णन किया है। इन सब के विस्तार में नहीं जाकर, ईसवी पूर्व की प्रथम और दूसरी सहस्त्राब्दी का जो विवरण प्राप्त होता है और उसमें, सरस्वती नदी और सभ्यता का जो लेखा जोखा है, उससे यही प्रमाणित होता है भारतीय जहाजों बेड़ों और बंदरगाहों का विश्व में कहीं मुकाबला नहीं था, उसके व्यापारिक और नाविकों की धाक थी। उस समय सामुद्रिक व्यापारिक व्यापार सुमेरिया, मिश्र, अरब देशों, कच्छ व भुज के अति सम्पन्न व्यापारियों से होता था। जाहिर है कि यह सारा क्षेत्र मूल: सरस्वती नदी के मुहाने का ही क्षेत्र था।
त्रैकूटाकों द्वारा सिन्धु सरस्वती के इसी क्षेत्र को अपने अधिकार मे लेकर चाँदी का सिक्का भी चलाया गया था और चन्द्र के महरौली वाले स्तम्भ लेख में तो सात मुहानों वाली, इस क्षेत्र की नदियों को इनके द्वारा विजित करने का प्रसंग भी इस प्रकार अंकित किया गया हैं-
तीत्र्वा सप्तमुखानि येन समरे सिन्धोर्जिता बह्रिका:।
अर्थात् इनमें अति विशाल आकार और माया के जलपोतों (जहाज) के नाम सालिका, त्रप्यम, वेलुतुम्ब कुंभ आदि थे। मध्यम आकार के जलपोतो में कोटिम्बा, सालिका संघातका: (युद्धपोत) त्रप्यम तथा विनायका। उससे भी छोटे परिमाण व आकार के जहाज काष्ठब, बेकुम्भ, विनायका पंच्चवरा, तुम्ब आदि के नाम से जाने जाते थे। ये सभी जहाज सौराष्ट्र के कच्छ भुज के या गुजरात के बन्दगाह के मुहानों में भीतर तक आकार व्यापार करते थे। कपास, हाथी दाँत और काली मिर्च इन्हीं में, मिश्र सुमेरिया रोम तक जाते थे।
व्यापार - भारत से अन्य देशों में व्यापार के लिये यहां से वस्तुएं जाती हैं। रूई सरसों तिल अफीम गेहूँ सन और सन का कपड़ा, चाय चम्र्म, पोस्तीन, नील, कहवा, ऊन, रेशम शोरा आदि मुख्य है और अन्य देशों से वह वस्तु आती हैं। रूई का कपड़ा, धातुओं के पात्र, सुवर्णा, चांदी के शस्त्र और कीलें, शीश, यन्त्र मिट्टी का तेल, रेशम के वस्त्र और अनेक प्रकार की शराबें और खांड इनके अतिरिक्त और बहुत सी वस्तु अंग्रेजों और सेना के गोरों के बर्तन के लिये यूरोप से आती थी। दूसरे देशों से भारत का वार्षिक व्यापार लगभग अढ़ाई अरब का है, जिसमें से आधे से अधिक इंगलिस्तान के साथ होता था। इस देश का बहुत सा माल समुद्र के मार्ग से आता-जाता था। सिल की ओर सीमा से परे रेलों और अच्छी सड़कों के न होने के कारण ईरान, अफगानिस्तान, तिब्बत आदि से काफी व्यापार नहीं होता।
विश्व के महान धर्म एवं सभ्यताएं
विश्व के सात महान धर्म माने जाते हैं। सातों धर्म एशिया महाद्वीप में आर्यों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में बसकर अलग-अलग भागों में स्थापित किये गये हैं। सात धर्मों में वैदिक धर्म जो आगे चलकर सिन्धु से हिन्दू धर्म कहलाया। दूसरा जैन धर्म की भारत में आदि (प्रथम) तीर्थकर ऋषभदेव के द्वारा स्थापित किया गया और तीसरा बौद्ध धर्म भगवान बुद्ध द्वारा स्थापित है।
जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर भगवान महावीर छठी शताब्दी ईसा पूर्व हुए हैं। बुद्ध और महावीर दोनों ही समकालीन थे।
चौथा धर्म पारसी (फारसी) जिसकी स्थापना ईरान में भगवान जरथुस्त्र द्वारा प्रारंभ किया गया। यह भी बौद्ध एवं जैन धर्म का समकालीन धर्म है। इसका धर्म ग्रंथ अवेस्ता के नाम से जाना जाता है।
सुर सीरिया क्षेत्र में तथा असुर असिरिया में निवास करते थे।
तीन धर्म यहूदी, ईसाई और इस्लाम पष्चिम में यरूषलम, जाईन , फिलिस्तान क्षेत्र से निकसित हुए थे। ये सभी धर्म पूर्व से भारत में पल्लवित हुए हैं। इसका विस्तार भारत से सुदूर मध्य एषिया तक फैलाव था।
भारतीय मूल के आर्यो के फैलाव एवं विभिन्न धर्मों के परस्पर आदान-प्रदान और संस्कृतियों में प्रभाव हम यहां की कलाओं, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, नगरों स्थानों आदि के नामों से देख सकते हैं। जिसमें जो आगे नील नदी घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुई थी वहां की मूर्ति कला में रिफक्स यानी नरसिंह (नर का मुख और धड़ शेर का) दिखाया गया है। यही स्वरूप भारत में बने चित्रों व मूर्तियों में इसे (शेर, सिंह ओर नर का) उल्टा दिखाया गया है।
एशिया में विकसित हुए सातवें धर्म इस्लाम (इल्हाम) -
परम सता की अनुभूति तक इन क्षेत्रों में आर्यो का ही प्रभाव था। अरब देष का नाम भी ओरब ऋषि के नाम पर तथा मैदिनी क्षेत्र (आर्यो की भूमि) के नाम से ही पड़े हैं। मख्ख (मष यानि यज्ञ) मैदिनी यानी पृथ्वी अर्थात् यज्ञ भूमि। यहां 360 देवी देवताओं की क्रमष: एक एक देवी देवी की पूजा एक एक दिन वर्ष भर की जाती थी।
नन्दकिशोर शर्मा, जैसलमेर।
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